व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के लिए गुरु का होना आवश्यक है। एक आदर्श गुरु ही आदर्श व्यक्तित्व का निर्माण कर सकता है। आदर्श गुरु के बिना आदर्श व्यक्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती है।
गुरू का ज्ञान, ध्यान और कर्म की संम्पूर्ण जानकारी होना आवश्यक है।
बच्चे की सर्वप्रथम गुरु माँ होती है जिस संतान की जननी सर्वगुण संपन्न हो उसकी संतान भी सर्व गुणों की खान होती है। परिवार नागरिक की पाठशाला है, सर्वदा तर्कसंगत है।
एक परिवार के, वे सभी सदस्य जो नवजात शिशु से बड़े हों। वह उस नवजात शिशु के गुरू होतें हैं क्योंकि एक नवजात शिशु जब जीवन के क्रमिक विकास के तरफ पांव बढ़ाता है तो परिवार के सभी बड़े सदस्यों का हाव-भाव, बोलचाल, रहन-सहन का नकल करने लग जाता है। उस नवजात शिशु के क्रमिक विकास के समय मस्तिष्क पटल पर अंकित सभी गुण-अवगुण जीवन के अंत समय तक विद्यमान रहतें हैं, जिसका भाव जीवन में कभी-कभी प्रकट होता रहता है।
अतः परिवार में सभी सदस्यों का सदगुणी होना आवश्यक है जिससे परिवार में जन्मे नवजात शिशु का आदर्श व्यक्तित्व का विकास हो सके। बच्चा जब परिवार छोड़कर ज्ञानार्जन के लिए पाठशाला में जाता है तो पाठशाला में ज्ञान सिखाने वाला गुरु उस बच्चे के आदर्श व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक होता है।
व्यक्ति को जन्म से लेकर जीवन के आखिरी सफर तक समय-समय पर आदर्श गुरु की आवश्यकता पड़ती है। चाहे वह किसी भी जाति समुदाय से हो।
कभी-कभी तो जीवन में ऐसे अवसर आतें हैं कि एक पौंढ़ व्यक्ति अपने से छोटे बच्चे को अपना गुरु मान लेता है और उसी सदगुरू के ज्ञान से भवसागर पार कर जाता है। गुरू की महिमा का वर्णन करना असंभव है, फिर भी कुछ शब्द गुरू के लिए प्रस्तुत करतें हैं-
गुरू बिना ज्ञान नहीं,चाहे सिर कितना भी धुन।
गुरू ठोक पीट सराहत है,भाँति-भाँति के गुन।।
-त्रिवेणी कुशवाहा ‘त्रिवेणी’