Monday, October 21, 2024
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कब तक: रकमिश सुल्तानपुरी

लक्ष्य निरन्तर
धूमिल करती
फैल निराशाएँ मटमैली
कब तक चलती
रहे अकेले
अनुमानों पर जीवन शैली

कर्मों के
अवलम्ब ढहे है
निश्चित्ताएँ दूर खड़ी हैं
पगुराते
अवसर से लड़कर
मानवताऐं चित्त पड़ी हैं
अफवाहों पर टिकी
सभ्यता
अनुभव के सागर तक फैली

सम्बन्धों में
कड़वाहट से
पलता है अब प्रेम सशंकित
अपना ही
अस्तित्व बचाने
में सज्जनता हुई कलंकित
दुख का
वातावरण बनाकर
जोड़ रहे हम सुख की थैली ।

कुहरों सी
अफवाहों से नित
सच का भानु तिरोहित होता
अनुभव बूढ़ा
मन में उपजी
शंकाओं को कब तक धोता
ढांढस
कर लेता है ख़ुद ही
अवसरवादी मन से टैली

रकमिश सुल्तानपुरी

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