रंजीता सिंह ‘फ़लक’
पीले पत्तों से
बीमार दिन में भी
हरे सपने
आकर टंग जाते हैं
मन की सुखती सी
खुरदुरी डाल पर
और वहीं ख्वाहिशों की
छोटी सी गौरया
फुदकती है …चोंच मारती है
सपनों के अधपके फलों पर
नीले से दिन की
आसमानी कमीज पहने
निकलता है कोई
तेज धूप में
सच का आईना
एकदम से चमकता है
और चुभते हैं
कई अक्स माज़ी के
नीला दिन
तब्दील हो जाता है
सुनहरी सुर्ख शाम में
कुछ रातरानी और
हरसिंगार अंजुरी भर लिये
ठिठकता है
वक्त का एक छोटा सा
हसीं लम्हा
और एकदम उसी लम्हा
खिल उठता है चाँद
किसी याद सा
देखती हूँ
दूर तक पसरती स्याह रात
तुम्हारी बाँहों की तरह
बीमार पीले पत्तों से दिन
हो जाते हैं
दुधिया चाँदनी रात
सच हीं है
उम्मीदें बाँझ नहीं होती
जन्मती रहती है सपने
उम्मीद खत्म होने की
आखिरी मियाद तक
ठीक वैसे
जैसे जनती है
कोई स्त्री
अपना पहला बच्चा
रजोवृति के आखिरी सोपान पर