प्रोफेसर वंदना मिश्रा
हिन्दी विभाग
GD बिनानी कॉलेज
मिर्ज़ापुर- 231001
ठीक उसी समय जब बम-वर्षक विमान
अपनी पूरी क्षमता दिखा रहे थे
और पृथ्वी की कोमल छाती पर,
गिरा एक बम,
किसी मासूम बच्ची-सी
आँखों में दहशत लिए
टुकुर-टुकुर ताक रही है
पृथ्वी
मैं सिर झटक कर भूल नहीं पा रही
यह दृश्य,
तो क्या हुआ! कह कर जाने
नहीं दे पा रही हूँ
गले में फंसा
रूलाई का गोला
किसी द्रव्य से निगला
नहीं जा रहा है
ठीक उसी समय
तुमने माँगी वसन्त की कविताएं
जब खून के छीटें उड़ रहे हो दसो दिशाओं में
हम कैसे देख सकते हैं हवा में उड़ता गुलाल?
जब ‘शोले’ फ़िल्म के गब्बर की तरह
मिसाइलें
पूछ रही हैं होली की तारीख
ताकि लूटा जा सके सुख चैन जनता का
मुझसे होली के गीत मत माँगों
मेरी आत्मा तक पर पड़ गए हैं
उड़ते हुए खून के छीटें
मैं जिन रास्तों से गुजरती हूँ
दिखते हैं सरसों के लहलहाते खेत
गेहूं की फसल सिर उठाये झूम रही होती है
पर मुझे दिख जाता है
ठीक बग़ल में मरगिल्ला बच्चा
जो रिरियाता रहता है
उसकी माँ
फ़टी कुचैली साड़ी में घूम रही है आस-पास
पिता भी होगा कहीं
कौन-सा बड़ा प्रसन्न!
मुझे लहलहाते खेत देख डर लगता है
सोचती हूँ
कि पहुँच जाएगा न ये अनाज
खलिहान तक,
बिना किसी बाधा के?
तारतम्य ढूँढती हूँ
फसल की हरियाली और उगाने वाले के
चेहरे की लालिमा में
पर उसका रक्त
सड़कों पर
बिखरा नज़र आता है
पूछती हूँ अनर्गल प्रश्न
कि इनको उगाने वाला क्यों नहीं है स्वस्थ?
मुझे कुछ हो गया है कि सुंदर दृश्यों से
भी भय लगता है
बसन्त शब्द में तो
दो-दो नकारात्मक शब्द दिखते हैं
मैं कैसे लिखूँ
वसन्त और होली के गीत?
लोग संशोधन करते हैं
बसन्त नहीं ‘वसन्त’
मैं कहती हूँ
सिर्फ वर्तनी में नहीं
कहीं
और भी करो ये संशोधन,
लोग कहते हैं कि बहुत नकारात्मक
सोचने लगी हूँ
वो ये भी कहते हैं कि कुछ दवाओं से
सकारात्मक सोच जागती है
इस बात पर
मैं औऱ फूट फूट कर रो पड़ती हूँ
है! तो क्यों नहीं दी
अब तक युद्ध करने वालों को?
वे हँसते हुए
मुझे और दवाएं
लेने की सलाह देते हैं