सोनी पाण्डेय
आँखें मूँदते कब रात ढ़ल जाती थी
पता ही नहीं चलता था कि इन दिनों रात का अन्धेरा उतरता ही नहीं मन से
उतरता नहीं मन से काई लगी सीढ़ियों का भय
इस बरसात में रखती हूँ थह-थह कर पैर पृथ्वी पर
ये धरती इतनी बीहड़ नहीं लगी पहले कभी
सन्नाटा चीरते हुए कान के परदे उतरने लगा है नसों में
उतरता नहीं मन से बिजलियों की कड़कड़ाहट का भय
कितनी जानें जा चुकी हैं इनके गिरने से
इनके गिरने से जो गिरे थे पेड़
वह फिर कभी नहीं उगेंगे इस धरती पर
वहाँ खुलेगा कोई गुणा-गणित का केन्द्र
मैं अन्ठानवे, निन्यानवे से आगे बढ़ ही नहीं पाई
उनके सौ का आकड़ा हजार से लाख की सीमा तोड़ बढ़ता गया
इधर लोग उलझे रहे गाँव के चकरोट में
उनकी फोरलेन सड़क गाँव की छाती चीर निकल गयी
कितने बचे हैं खेत, बाग, बगीचे?
कितनी बची है हमारे बीच की दुनिया?
हमारी दुनिया के बिलाने के साथ ही उगती है उनकी दुनिया
इस दुनिया की चकाचौंध रौशनी के बढ़ते प्रकाश से मैं डरती हूँ
छिपा रही हू घर के तहखाने में
माँ के गीत
पिता के सपने
भाई की लकड़ी की गाड़ी
गिट्टी, चिप्पी,चूड़ी के रंगीन टुकड़े
वह खेल के सामान जो सुलभ थे सबके लिए
इस घिरते अन्धेरे में जला कर उम्मीद का दीया
रख देती हूँ आँगन के ताखे पर
रात यहीं उतरेगा चाँद
मैं बलइया लेती उसे चूम लुँगी जी भर
मेरे आँगन में बचा रहे चन्द्र खिलौना
कउsवा मामा
दूध-भात की लोरी
कि इन दिनों बढ़ते अन्धेरे में सब भागना चाहते हैं छुड़ा कर हाथ
मेरी हथेलियों पर कुछ जुगनू बैठे लड़ रहें हैं पूरी ताकत से
बबूल की झाड़ ही सही
थोड़ी सी चुभन ही सही
थोड़ी सी जलन ही सही
हम सह लेंगे दर्द की सारी हदें
लड़ते हुए अपने-अपने अन्धेरे से