वंदना मिश्रा
(सारनाथ के बुनकर परिवार की आत्महत्या के बाद लिखी कविता)
कबीर
तुम्हारा ताना-बाना
समेटे रहता था
योग साधना के सारे तंतु
सिमट कर रह गया तानों में
और समूचे बुनकर परिवार को
निगल गया
बताओ तो कैसे निर्द्वन्द्व
हो कहे
यह जुलाहा
संसार के मरने पर भी
हम न मरब
कैसे गुणगान करें झीनी झीनी
बीनी चादर का
20 वर्ष ही तो देखे थे
जीवन के
पत्नी बच्चे समेत
देखो तो कबीर
तुम्हारा ताना तानों में बदल
कितना क्रूर हो जाता है
जानते यदि तुम
तो गर्व करते
अपने ताने-बाने का
जिस पर बुनते बुनते
टूट जाती है आशा की डोर
और बुन पाता है
बुनकर
सिर्फ़ आधी चादर
जिससे ज़रूरतों का न
सिर ढकता है ना पैर