प्रोफेसर वंदना मिश्रा
हिन्दी विभाग
GD बिनानी कॉलेज
मिर्ज़ापुर- 231001
सूरज की तरह गोल लोई
हाथ में ले
उसे झील की तरह गहरा करती थी
और भर देती थी उसमें
मसाले वाली चने दाल का पूरन
नाजुक हाथों से संभाल कर बंद कर देती थी
उसका मुंह और चकले पर
गोल गोल घूमने लगती थी
उसकी पूरियाँ
माँ बनाती थी
चना दाल की पूरियाँ
बेलते और सेकते समय
नहीं निकलता था उसमें से पूरन का
एक भी अंश
हम इंतजार करते थे
अपनी थाली में उनका आना
जैसे ही हम तोड़ते थे
कितने सारा चने का पूरन निकल कर
थाली में फैल जाता था
कैसे नहीं निकलता ,बनते समय-सिकते समय
कहां छुपा कर रखती है माँ इतनी सारी पीठी?
प्रश्न करते थे हम और मुस्कुराती थी माँ
अब सोचती हूँ ऐसे ही छुपा कर रखती होगी माँ
अपनी अनुभूतियाँ
काश ! हमने माँ के मन को भी
कभी खोला होता इसी तरह