दंश: वंदना सहाय

वंदना सहाय

मैं बीज
जिजीविषा से भरा
एक वृक्ष बनने की उम्मीद ले चला था
सोचा था- मेरे एहसानों के बदले
तुम मुझे छूने दोगे आसमान
फैलने दोगे धरा पर
रंगने दोगे उसे धानी-हरा
बुलाने दोगे बादलों को ज़मीं पर
झूमने दोगे मुझे ठंडी बयार में

पर यह क्या-
जब-तब तुम मुझे दंश देते रहे
काटते रहे मेरी बाँहों जैसी डालियों को

अभी तक तुमने मुझे पूरी तरह से खत्म नहीं किया
इसलिए मैं निरीह खड़ा हूँ
रिसते ज़ख्मों को लिए
अनंत, विस्तृत आसमान के नीचे
कर रहा हूँ उनके पूरी तरह से भर जाने का इंतज़ार
ताकि मैं दे सकूँ अगले साल
अपने साथियों के साथ
तुम्हें एक सुन्दर बसंत