ज़रूरी नहीं लगा: वंदना मिश्रा

वंदना मिश्रा

ज़रूरी नहीं लगा
कि मैं सौगंध लूँ
ईश्वर की
कि याद आती है तुम्हारी

किसी तीसरे गवाह की ज़रूरत
नहीं महसूस की
अपने तुम्हारे बीच
इसीलिए तो मैंने लिखा एक पत्र ,

कुछ टूटे-फूटे शब्द, जोड़-घटा
तुम हँस सकते हो इसकी शैली
शब्द संरचना और
टूटे वाक्य के चयन पर,

बड़े कवि हो तुम
और मैं
ग्रामीण परिणीता तुम्हारी

तुम्हें शर्म भी आएगी
तुम्हारे मित्रों के बीच
कहीं दिख न जाए ग़लती से
यह पत्र धब्बा है तुम्हारी सुरुचि पर
छुपा रखोगे
किसी अंधेरे कोने में
पड़ा रहेगा मूक

शब्द इतने वाचाल
और चमकीले भी तो नहीं कि
और चमका सकें
तुम्हारे शोहरत से चमकते चेहरे को

मैंने नहीं लिया कहीं नाम
सार्त्र, देरिदा, फूको का
नहीं कोट किया मीर, गालिब को

कालिदास, भास और बिहारी भी कहाँ
पढ़े गए थे मुझ प्रेम से डूबी से

सीधी, सादी, सच्ची भावनाएं
बिना मिश्रण के उकेर दी थी
कोरे कागज पर
हल्दी कुमकुम की तरह
बिना परवाह किए,

पर इतना जानती हूँ कि धुँधले मैले
इन शब्दों को ना पढ़ पाए
तो भटकते रहोगे अंधेरे में
सारी उम्र
तमाम चमकते शब्दों के
बोझ से दबे