गिला तो न कर: रूची शाही

रूची शाही

अजब सितम है कि भरा नहीं मन
कि अब तक आजमाते हो मुझको
तुम्हें लिखकर भला क्या जताना
तुम पढ़कर भूल जाते हो मुझको

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तुम्हारा होना न होना किस काम का है
जब मैं तूफानों में भी तन्हा खड़ी हूँ
मैं कांटा नहीं हूँ फिर भी न जाने क्यों
तेरी आंखों को बहुत चुभ रही हूँ

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करके जिद राहों में मुझसे मिला तो न कर
मिलता है तो मिल खुशी से, गिला तो न कर
चुभती हूँ सबको यहां मैं कांटे की तरह
मुझको तू फूल समझने की खता तो न कर