जिन्दगी की ग़ज़ल: रूची शाही

रूची शाही

देर तक सोचते हम रहे यार को
नींद आंखों से दूर जाती रही
वो यादों में आकर रुलाते रहे
फलक पे चांदनी मुस्कुराती रही

रात का था वो पहला पहर
नींद की थी सूनी-सूनी सी डगर
अश्क बेताब हो गए बरसने को
वो आंखों में आके गए जो ठहर
बाहों के घेरे का तकिया वो फिर
सहेलियों सा ढांढस बंधाती रही

देर तक सोचते हम रहे यार को
नींद आंखों से दूर जाती रही
वो यादों में आकर रुलाते रहे
फलक पे चांदनी मुस्कुराती रही

एक तो सर्दियों की लंबी रातें
और भी सर्द करती तेरी यादें
हम ठिठुरते रहे, हम सुबकते रहे
तन्हाई से करते करते तेरी बातें
वक्त चुपचाप सरकता रहा औऱ
घड़ी अपनी टिक टिक सुनाती रही

देर तक सोचते हम रहे यार को
नींद आंखों से दूर जाती रही
वो यादों में आकर रुलाते रहे
फलक पे चांदनी मुस्कुराती रही

यादों का कारवां चला रात भर
आँखों ही आँखों मे हुई है सहर
वो जबसे गए तन्हा हमें छोड़ कर
जिन्दगी की ग़ज़ल हो गयी बेबहर
इश्क़ की नज्में हिज़्र की राह में
लड़खड़ाती रही, डगमगाती रही

देर तक सोचते हम रहे यार को
नींद आंखों से दूर जाती रही
वो यादों में आकर रुलाते रहे
फलक पे चांदनी मुस्कुराती रही