सरिता सैल
कर्नाटका
पिता के जाने के बाद
ठीक वैसा ही लगा था जैसे
एक गांव लुप्त होकर
मेरी स्मृतियों में बस गया हो
उस दिन एक गुल्लक
असमय टूट गया था
घर फिर एक बार
धीरे-धीरे मकान में
तब्दील हो गया था
आइने के सामने रखीं
श्रृंगार की हर चीज़
मौन होकर संदूक में चली गई थी
धूल की परत में
मां की मुस्कुराहट दब गई थी
जो पहाड़ बौना नजर
आता था दरवाजे से
पिता के चले जाने पर
उसकी कंटिली झाड़ियां
दहलीज को छूने लगी थी
अलगनी पर निस्तेज पड़े
पिता के गमछें ने
उनके चाहे अनचाहे
पलों के दस्तावेजों को
मुझ से भी अधिक सहेजा था
मेरे कान्धें पर अचानक एक
मज़बूत हड्डी उग आयी थी
मेरे आवाज पर उचककर
मां सहम जाती थी
मेरी ध्वनि में पिता की ध्वनि
इन दिनों घुलने लगी थी