चित्रा पंवार
सो रहे हो बुद्ध!
जब दुनिया में मची पड़ी है हाहाकार
गाजर-मूली से काटे जा रहे हैं इन्सान
बम धमाकों से दहल रही है धरती
चारों ओर फैला है हिंसक नारों का शोर
जाने कैसे सो रहे हो बुद्ध!!
अब भय से रोते, चीखते नहीं बल्कि
सिसकियां दबा रहे हैं बच्चे
गोली की आवाज़ पर कोई बुरा सपना देख
रात को चौंक-चौंक उठती हैं माएं
काम खत्म कर दफ्तर से निकले आदमी
जब नहीं पहुंचते अगली सुबह तक घर
तब तुम्हारी नींद पर
प्रश्न उठना लाज़मी है बुद्ध..!
कैसी शांति है मुखमंडल पर
जो मरती हुई सभ्यता पर भी अटल है
जो रूदन से भी द्रवित नहीं होती
ध्यान मुद्रा से बाहर आओ बुद्ध
बचा सकते हो तो
अहिंसा परमो धर्म: को
हिंसा के हाथों मरने से बचा लो बुद्ध!
हे बुद्ध!
ये सोने का नहीं
धुआं धुआं दुनिया को सुलगने से बचाने का समय है
डूबते सूरज को हथेली पर रखकर
अंधेरों से लड़ने का समय है
जागो बुद्ध!
तुम्हें पुकार रहे हैं अनगिनत राहुल
असंख्य यशोधराएं
यह जानते हुए भी
कि तुम छोड़ आए थे पत्नी और पुत्र को सोते हुए
उठ बैठो बुद्ध, शरणागत की रक्षा करो
कि पश्चाताप का
सबसे सही समय यही है…!