सुप्रसन्ना झा
बिहार
मैंने जलाया है
एक दिया
अंधकार के विरुद्ध
किन्तु हवाएं
शातिर है
डराती है
अपनी गति से
रौरव से।
डरती हूं
बुझ न जाए
लौ विश्वास की।
पर अडिग है
संकल्प दीप का
लड़ता है
हवाओं से
उसके रौरव से
अविरल
अकम्पित।
चीरता है
तन अंधेरे का
देवदार सा
सीना ताने
एक नई भोर की
आस में।