रूची शाही
अपने बच्चे को पहली बार सीने से लगाते हुए
मुझे मेरी मां याद आई
फिर धीरे धीरे वो सब कुछ समझ आने लगा
जो तब समझ नहीं सकी थी
जिस दिन मां बड़ी बहन से गुस्सा होती
उस दिन खुद खाना खिलाया करती मुझे
बहुत बड़ा सा चावल दाल और दही का निवाला
जो निगलते हुए अटकने लगता था मेरे गले में
मेरी चोटी भी उस दिन मां खुद ही बांधती थी
चिढ़ जाती थी टेढ़ी चोटी से मैं
पर डर से कुछ नहीं बोलती
कि कहीं और न गुस्सा जाए मां
धीरे धीरे मैं बड़ी होती गई
और मेरा मां से लगने वाला मेरा डर घटता गया
अब मैं हावी होने लगी थी मां पर
अब कभी कभी मैं चोटी बना दिया करती थी
पर सीधी और सुंदर सी चोटी
पर शाम होते होने तक मां कहती
“बड़ा जोर से चोटी बांध देलहीं बेटा
माथा दुखाय लगलौ”
कम पढ़ी लिखी औरत होते हुए भी
मेरे मन के अकेलेपन को
मेरी पढ़ी लिखी बहनों से ज्यादा समझती थी।
कभी कभी मैं सारा दिन चुप रहती थी
मां उस दिन बस इतना ही कहती
“खाना खा ले न बेटा”
अपनी शादी से लेकर विदा होने तक
यही ख्याल दुखी करता रहा
अब उसकी साड़ियों की फॉल कौन लगाएगा
चूड़ी लहठी भी मैच करके पहन नहीं पाती थी
बहुत दिनों तक मैं मोबाइल में कॉल लगाना सिखाती रही
साड़ी के पल्ले में पिन लगाना बताती रही….
बहुत कोशिश कि थोड़ी सी उस जैसी बन जाऊं मैं
पर सब कुछ समझते हुए भी
आज तक नहीं बन सकी मैं
जबकि मैं आज भी चाहती हूं
कि उसके इस बुढ़ापे थोड़ा सा ही सही
बन पाऊं मैं भी उसकी मां