रूची शाही
आखिर मन क्यों नहीं थकता
एक ही गलती को बार बार दुहराकर भी
अपने हिस्से एक ही दुख को बार-बार समेट कर भी
मन क्यों नहीं थकता मेरा
बार बार उस घर की तरफ जाने से
जहां मेरे मुंह पे ही दरवाजा बंद कर लिया गया
और मेरे पैर की छोटी उंगली दब कर लहूलुहान होती रही
मुझे नहीं पता पर बहुत बार चलते-चलते
थक कर चूर-चूर हुआ मन और तन क्यों नहीं हारता मेरा
बार-बार मुंह की खाने के बाद भी
आखिर क्या है जो चलते रहने को मजबूर करती है
नहीं पता कब तक चलना है मुझे
पैरों के छाले जरा सा ठीक क्या होते कि
जिंदगी फिर आगे चलने को धकेल देती है
और चलना शुरू हो जाता है मेरा
अब लगता है रूक जाना चाहिए मुझे
पर फिर सोचती हूं रूक कर भी कहां जाऊं मैं
मेरा तो कोई ठिकाना नहीं
मेरे लिए कोई प्रतिक्षारत नहीं
इसलिए चलना ही अंतिम सत्य और विकल्प है मेरा
जब तक कि मेरी सांसे स्वयं थक नहीं जाती