मेरी खामोशी समझना तुम: रूची शाही

रूची शाही

सुनो जब बोलते-बोलते अचानक से चुप हो जाऊं तो
मेरी खामोशी को समझने की कोशिश करना
मेरी चुप्पी मेरी सांसों की डोर को उलझाने लगती है

नहीं ऐसा नही है कि सिर्फ तुमको ही समझना है
मैं भी समझती हूं तुम्हारी उन तमाम बातों को
जिसे तुम न कह पाने के कारण बचते आए हो मुझसे
मैं महसूस करती कभी-कभी तुम्हारी उस शर्मिंदगी को भी
जिसकी वजह से तुम मुझसे नजरे चुराते हो
मैं समझती हूं उन लफ्जों के अधूरेपन को भी
जो ठीक वैसे नहीं बोले गए जैसा उनका स्वरूप था
मैं भांपने लगी हूं उस डर को भी
जिसे तुम डर का नाम देकर मुझसे बचते आए हो

मैं समझती हूं कि कुर्सी पे सिर टिकाए
दिन में कभी-कभी दो चार बार सोच लेते हो तुम मुझे
फिर किसी गैर जरूरी कागज़ कि तरह मोड़ कर
रख देते हो मुझे टेबल के दराज के अंदर
हालाकि मैंने तो यही चाहा कि
नोटों के गड्डियों की तरह मुझे बार बार गिनकर
सहेज लेते मुझे तुम अपनी ऊपर वाली जेब में
और मैं महसूसती तुम्हारे हृदय के स्पंदनों को

पर इतनी अहम कभी हो ही नहीं पाई मैं
फिर भी तलाशती हूं मैं कभी-कभी तुम्हारी बातों में
अपने उस टूटे फूटे वजूद को
जो चाहता है तुमसे कि भरपाई में
तुम मुहब्बत न दे सको तो कोई बात नहीं
पर कभी जब बोलते-बोलते चुप हो जाऊं तो
मेरी खामोशी को समझना तुम