डॉ. आशा सिंह सिकरवार की कविताएं
चोट
अंधेरे
अकेले में
उमचकर बाहर आ गिरती हैं चोटें
सिहर उठती हैं ऐसे
जैसे छूने भर से…
और कुछ चोटें
समय की छाती पर
बहती है नदी बन कर
कुछ
पर्दे के पीछे
छिपी रहती हैं
अपनी नियति पहचानते हुए
मौन चोटें
बहरी हो गई है आत्मा
एक दिन
चोटों का शंखनाद बजता है
दिशाओं से आती है रणभेरी
इसी तरह सोचो
धूप में तपने दो देह
घुप अंधेरे में सिकुड़ गई है
मेमना-सी कांपती
आवाज़ ने क़िले की दीवारों को फादकर
नई राह पकड़ी है
लोहा आग में पिघलता है
तब लेता है आकार
किसी भी साँचे में ढल जाए
वह अपनी ताकत नहीं खोता
बिटिया
इसी तरह सोचो
तभी जिंदा रह पाओगी
इस जंगल में