डॉ. आशा सिंह सिकरवार की कविताएं

डॉ. आशा सिंह सिकरवार

माँ पहाड़ से उतर रही है

पीली सरसों के बारिक दाने
रखें हैं माँ के ह्रदय पर
वह पूछती है- बता कहाँ जाऊँ ?

काँपते कलेजे की थरथराहट,
छटपटाते उदगार पर,
हथौड़े की मार पड़ रही है

माँ पहाड़ चढ़ रही है,
पहाड़ हैं कि खत्म ही नहीं हो रहे हैं
फिर भी
कोख भारी नहीं लगती है

नदी उमड़ती है
पहाड़ झरनों में बदल जाते हैं

माँ आँसू पोंछती जाती है
रखती जाती है मुँह में निवाला
माँ पहाड़ से उतर रही है

माँ ने उंगली थाम रखीं हैं…

गिरावट

चीजों की गुणवत्ता में आ रही है निरंतर गिरावट
बाजार खड़ा है बिना स्तंभ के
आदमी खड़ा है बाजार में
बिना मूल्यों के

हम खुश हैं समस्त गिरावट के लिये
हम खुश हैं गिरावट के चलते
किसी को भी गाली दें
किसी की हत्या कर दें
स्त्री का चीरहरण कर दें
भरे बाजार
स्त्री पर बलात्कार बाद हत्या,
प्रेम के नाम पर एसिड फेंक दें

किसी के भी माथे पर रख दो इल्ज़ाम
किसी की जमीन हथिया ले और
किसी की भी पीट-पीट कर हत्या कर दे
धर्म और जाति के के नाम पर दंगे भड़का दे

जो स्त्री दूध और राशन की तलाश में
घर से निकली थी
उसे भीड़ पागल करार दे दे
मांस खाने के उत्साही लोग
अकेली जान कर बर्बरता पर उतर आएं

गिरावट समाज में, मूल्यों में, शिक्षा में,
गिरावट संबंधों में, रिश्तों में, प्रेम में
इतनी गिरावट के बावजूद,

हम शर्मिंदा नहीं है
कहीं भी कुछ भी श्रेष्ठ नहीं बच रहा है
चिंतन में रहेंगे खगोल शास्त्री
डूबे रहेंगे सप्तऋषि नक्षत्र
इतना मिलावट का जहर मनुष्यता में
कौन घोल रहा है?
कौन हैं मनुष्यता के दुश्मन?
‘गिरावट ‘आज का शाब्दिक अर्थ है