सोनी पाण्डेय
(1)
आसाढ़ की रात
रोपनी के दिन हैं
वह उतरता है पानी लगे खेतों में
गहराती रातो में
नींद की लुकाछिपी के बीच
बहती है स्मृतियों की नदी
बेकली भरी इन रातों का स्याह अंधेरा
सन्नाटे के बीच पहरेदार झिंगुर बजाते हैं जब सीटी
चौंकन्ना करने से ज्यादा चौंकाते हैं
किसी प्रेत की तरह डोलता है मन
कितना कुछ पीया है अनाचाहा
कितने अनचीन्हे रास्तों पर चला है
कितनी बार बँधा है पीपल पर घण्ट उसके नाम का
कितना बहा है पानी जीवन नदी का
पर कोई किनारा दीखता ही नहीं….
आसाढ़ उम्मीद का नाम है उसके लिए
बीज बढ़ाती है दीये की बाती
कि इस साल आएगा गोड़़ तोड़कर धान घर
भर जाएगा कोठिला,कुण्डा
कोना ,अतारी
सोचता है बैठकर खेत के मेढ़ पर
जैसे-जैसे बढ़ते हैं धान के शिशु
दस्तक देने लगता है क्वार
खलिहानों तक आते -आते धान
बहने लगती है फागुनी पवन
खेत दरअसल किसान की पोथी है
वहीं वह लिखता बांचता है जीवन
कम से कम में जी लेने का हुनर
वह इन खेतों से सीखता है
इधर गाँवों की ओर बढ़ रहा है शहर
आसाढ़ सूखने लगा है
भादों की आँखों की नमी सूख रही है
एक अनकही बैचैनी बनी रहती है मन में
दिन का कोलाहल कितना पराया है
जानने लगा है इन दिनों
अब न पहले से दिन रहे न रातें रहीं
एक दिन शायद सब भूल जाएंगे उसका नाम
वह उदास है इन दिनों
पानी की कमी से ज्यादा जीवनी की नमी खोने से….
(2)
जेठ के दिन
मैदानी नदी से दिन
बढ़ते ही जाते हैं
सूरज के उगने और ढ़लने के क्रम में
बदलता है रंग जीवन…
दिन उदास से साथी
वह अपने कांधे पर उम्मीदों की गठरी धरे
बढ़ा जाता है
खलिहान में गेहूँ की बालियाँ दातें
अनाज के दाने ओसाते
भूसे के ढेर को देखता है
अब न चरन है न पशु बचे हैं दुवार पर
बहुत शोर है चारों तरफ
कुछ भी साफ- साफ सुनाई नहीं देता
हर आदमी खो जाना चाहता है भीड़ में
दुनिया का रेला बढ़ा आता है गाँव की ओर
एक शोर बढ़ रहा है इन दिनों
गाँव चिहुँक कर जाग जाता है….
(3)
जेठ की दोपहरी
किसी हठी बच्चे सा अड़ा मन
दोपहर की तपती धरती पर रखता है पैर
पैर में छाले हैं
मन पहचानने लगा है धरती का ताप
सूरज की गरमी से ज्यादा आग है धरती के पास
या इतनी दाह है लोगों के मन में कि
अक्सर जल उठती है धरती
यहाँ सर्दियों की सुखद दोपहरी संग
जेठ के लू भरे थपेड़े भी हैं
किसान पहचानता है इन दिनों को
सतुवा- पिसान सा उसका मन
हमेशा याद रखता है जीवन में
मौसम की आवाजाही को
इस लिए जमाए रखता है पैर ज़मीन पर
उसका सुच्चा मन चमकता है सोनेसा
सूरज इसी से उधार लेता है उजास
ऋतुएँ पहचानती हैं इसका मन
जब तक धरती पर इनका डेरा है
बची रहेंगीं सभ्यताएँ
क्यों कि यह न थकते हैं न हार मानते हैं
किसान धरती का रंग,गंध पहचानते हैं…