वंदना सहाय
नागपुर
नहीं हुआ है
इस कस्बे में
कोई आतंकवादी हमला
और न ही है यहाँ कोई शीतयुद्ध
गोरों और कालों के बीच
न्युक्लियर हमले का भी
यहाँ कोई डर नहीं
फिर भी वह डरती है
अपने पति के स्वर्गवासी होने
और बेटे के प्रवासी होने के बाद
रात का सन्नाटा
डराता है उसे
लगते हैं आवारा कुत्ते उसे
दहशतगर्द
टूटी और मौन पड़ी
पीली पत्तियों की चरमराहट
जब तोड़ खामोशियाँ
जन्म देतीं हैं सरगोशियों को
तब मन उसका भर उठता है
आशंकाओं से
पेड़ की हिलती परछाईंयाँ
धर लेतीं हैं आदमवेश
उसे लगता है जैसे कोई कर रहा हो
उसके कत्ल की साजिश
हवा के थपेड़ों
और नीरवता से जूझता
छोटा-सा बल्ब
बन जाता है उसका रहनुमा
और बंद दरवाजा
उसका प्रहरी
भींच लेती है हाथों में वह
तकिये के नीचे रखी
विष्णुसहस्त्रनामावली को
और आँखों में भर
भवसागर पार कराने वाले की तस्वीर
इंतजार करती है
सुबह के उजाले का