रूची शाही
कल रात इच्छा हुई
कि छू कर देखती हूँ तुम्हें
फिर लगा कहीं मेरे स्पर्श से
और न अनमने हो जाओ तुम
बस इसलिए देर तक जागते जागते
सोता हुआ देखती रही तुमको…
तुमको चूमने की इच्छा
होंठों से चुपचाप उतरकर
आँखों की कोर से रिसने लगी
मैं सोचती रही कितना मुश्किल है प्रेम भी
प्रेमिल इच्छाओं की आहुतियां भी
प्रेम की खातिर ही देनी पड़ती है
मैं खामख्वाह आसान समझती रही
जबकि प्रेम वियोग की चरम सीमा है
दरअसल प्रेम यातना का ऐसा कारागार है
जहां हर रोज उम्मीदें टूटती हैं
आशाएं घुटती हैं और
ताकती रहती खिड़की से बाहर
पर न जाने क्यों मुक्त होना भी नहीं चाहती
सोचते सोचते जाने कब
मेरी भी आंखे लग जाती है
स्वप्न में मैं खुद को देखती हूं
वहां तुम नहीं होते/कोई भी नहीं होता
मैं अकेली कैद होती हूं
एक सुनसान अंधेरे कमरे में..
नींद खुल जाती है मेरी
अपने धड़कते हृदय
और उखड़ी सांसों को
संभालते हुए न जाने क्यों
तुमको छूने और चूमने की इच्छा से
अब डर रही हूं मैं….