प्रार्थना राय
देवरिया, उत्तर प्रदेश
लोक रीति की परम्पराएँ
भले ही संकरी गलियों से होकर गुजरती हैं
फिर भी स्वत:अनुग्रह की ड्योढी पर
सूक्ष्म पाठ का बोध कराती है
हो सकता है, हों दोष कुछ, लेकिन
एक अनुशासित समाज का निर्माण कर
मनुष्य का मानवीयता और
प्रकृति के साथ समन्वय कर
संतुलित करती है
पलायनवादी विचारों की वृत्ति को
नष्ट कर साकार होती है
जब स्त्रीत्व की देवित्व छवि
तब अपनी कामनाओं को विस्मृत कर
स्वयं की वर्जनाओं का संहार कर
संचारित होती है वहां आलौकिक ऊर्जा
जहाँ न कुछ माँगने की इच्छा
बस प्रतिदान की होती है आहूति
झिझक और अपनत्व की प्राचीर के बीच
जब होते हैं कुछ स्वर गुंजायमान
तब निश्चित रूप से
एक निश्छल विचार का होता है उद्गम
जहां समझ को परे रखकर
स्वयं के कांधों पर आने वाले
संभावित भार को दरकिनार कर
लोक रीति की परंपराओं में
केवल दिखाई देती है
कई पीढियों की खुशहाली