रूची शाही
अचानक ही लगा
कि भिखमंगी सी हो गई हूं मैं
तुमसे प्रेम मांगते मांगते…
मुझे इतना दो, ऐसे दो, वैसे दो..
कम सा लग रहा, घुटन सी हो रही है
तुम क्यों नहीं होते साथ मेरे…
तुम क्यों नहीं सुनते मुझे…
ये सब मेरी थोपी हुई चाहतें थी
जिन्हें तुम सुन तो लेते
पर याद रखने की जरूरत नहीं समझते
मैं बार बार याद दिलाती कि
प्रेम के बदले प्रेम हक है मेरा
पर यहीं मात खा जाती बार बार
अगर प्रेम होता तो मांगने की जरूरत नहीं होती
तुम खुद लाते मेरे लिए वो सबकुछ
जिसके लिए जाने कितनी बार
मैं गिड़गिड़ाती रही तुम्हारे आगे
कितना कुछ मांगा मैंने तुमसे
तुम्हारे कांधे पे सिर टिकाने की थोड़ी सी जगह
तुम्हारी हथेलियों की हल्की सी गर्माहट
तुम्हारी बाहों में सुख की नींद
तुम्हारे साथ कॉफी की चुस्कियां
और न जाने क्या क्या…
मांगते मांगते मैं धीरे धीरे
खाली होने लगी अंदर से
मुझे भूख लगती थी
पर खाना नहीं मिलता
प्यास लगती थी पर पानी नहीं मिलता
मेरी अंतड़ियां ऐंठने लगती थी
और आत्मा कचोटने लगती
कि क्यों मांगना कुछ भी
और फिर प्रेम
भीख में मिलने वाली कोई चीज तो नहीं
अगर होती तो शायद
फुटपाथ पे बैठने वाले
सबसे ज्यादा खुशनसीब होते