रूची शाही
कुछ रिश्तों ने छीन लिया मुझसे
अपना कहे जाने का हक
वजह चाहे जो भी हो
पर जानबूझकर बो दिए गए
उस आंगन में बबूल के कुछ पौधे
जहां बेला-चमेली के साथ
गुलाब के भी खिलते थे फूल
सुख के साथ दुख का होना
हँसी के साथ आंसू का होना
उतना ही लाज़िमी है जितना
फूलों के साथ कांटों का होना
पर जानबूझकर लगाए गए कांटों
से आखिर कब तक दामन बचा पाती
बहुत कोशिश की समझा पाऊं तुमको
टूटना सिर्फ दर्द ही देता है
खंडित हुई चीजों का कोई मोल नहीं होता
पर तुम समझ लेते तो शायद
छोटे पड़ जाते ना मुझसे…
थक गई मैं भी, दामन बचाते-बचाते
खुद को तकलीफ देते-देते
सुनो अब लहूलुहान है मन मेरा
और तुम्हारे बबूल में खिल रहें हैं फूल अब….