रूची शाही
वो बात जो बड़ी आसानी से
पहुँचनी चाहिए थी तुम तक
उसे तुम तक पहुँचने में
पार करना पड़ा मीलों का फासला
लहूलुहान होना पड़ा शब्द-शब्द को
क्षत-विक्षत होता रहा उनका वजूद
खो गए उनके अर्थ, जहां-तहां बिखर कर
और दम तोड़ गईं उनकी संवेदनाएं
तुम चाहते तो सुन सकते थे न
हाँ वो बस सुने जाने के लिए थे व्याकुल
भले ना समझते पर
सुनकर उनको मरने से तो बचा सकते थे न
जानते हो तुम्हें ढूँढते-ढूँढते
बेआबरू भी हुए वो
इस दर्द की भरपाई
क्या कभी कर सकोगे तुम
नहीं न
जाने कितना सफर करना पड़ा उन्हें
बस इस इंतजार में
कि तुम सुन पाओ कभी उनको
अब जब एक लंबा समय गुजरा
और हम मिले भी तो
तुमसे कहने को कुछ न बचेगा मेरे पास
न मेरे शब्द ही और न मेरा मौन ही