समीक्षक- डॉ वंदना मिश्रा
कविता संग्रह- दर्ज होते ज़ख्म
कवयित्री- सरिता सैल
प्रकाशक- न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली
मूल्य- ₹225
सरिता सैल जी का काव्य-संग्रह ‘दर्ज़ होंगे ज़ख्म’ पढ़ते हुए जो सबसे पहली बात मन में आई वह यह कि स्त्रियों का दर्द, हर प्रदेश में, हर प्रांत में एक सा होता है। इस मामले में कितनी एक से होती हैं स्त्रियों की अनुभूतियाँ। ‘सरिता सैल’ जी की कविताएं पढ़ते हुए लगता है कि भले ही प्रदेश बदल जाए लेकिन स्त्रियों के लिए, उनके कष्टों के लिए हर प्रदेश एक सा ही ज़ख्म ले कर आता है। स्त्री ज़ख्मों का बहुत मार्मिक परन्तु यथार्थ चित्रण किया है सरिता जी ने जो ज़ाहिर है केवल प्रदर्शन नहीं ,भोगा हुआ सच है।
दूसरा यह कि अहिंदी भाषी होने पर भी सरिता जी शब्दों के सामने लाचार नहीं हुई ,अपनी भावनाओं को पूरी सामार्थ्य से व्यक्त किया उन्होंने। वे लिखती हैं “स्त्रियां चखी जाती हैं किसी व्यंजन की तरह/उन्हें उछाला जाता है हवा में/किसी सिक्के की तरह।”
पर हमेशा ऐसा नहीं होगा उनके यहां उम्मीद भी है कुछ ऐसी स्त्रियों से” ..जो अपनी हथेलियों पर चढ़कर मन के अनुसार उस सिक्के का हिसाब तय करेगी”। पृष्ठ-40
सहजता सरिता जी की कविताओं की ख़ास बात है ।सरल भाषा में अगर आप खास बात कह पा रहे हैं तो इसका पहला श्रेय जाता है आपकी ईमानदारी को। क्योंकि “कलम से बहती स्याही/हर बार लिखाई भर नहीं होती/कभी -कभी लहू भी औरत की पीठ की।”
ये कविताएं ही नहीं आँसू और रक्त से लिखी इबारतें हैं जो स्त्री सहती जाती है और कोई नहीं कहता कि “अब बस हुआ”। एक दिन खुद ही वह सारे जोखिम उठा कर फैसला ले लेती है। ये फैसला दो तरह का हो सकता है, मौत या ज़िंदगी। सरिता जी की स्त्री जीना जानती और चाहती है। होना तो यह चाहिए था कि “हमेशा एक दरवाजा/खुला रखना उन बेटियों के लिए/जो कुँए की तरफ मुड़ने के पूर्व/मुड़ जाए उस घर की तरफ/जहां दीवारों ने सहेज रखी है/उनकी पहली किलकारी।” पृष्ठ-81
पर ऐसा होता नहीं। उसे लोक लाज, विवाह के खर्च, छोटी बहनों के विवाह, पिता की बीमारी, मर्यादा सबका वास्ता दे मायके आने से भी रोक दिया जाता है और तलाक ले कर नया जीवन शुरू करने से भी। सरिता लिखती हैं “तलाक माँगती औरतें/बिल्कुल अच्छी नहीं लगती हैं…”। पर वह स्त्री टूटती नहीं बल्कि “एक दिन..जोड़ देती है अपने टूटे पंखों को/दरवाज़े पर चढ़ा देती है अपने नाम का तख्ता/आग में डाल देती हैं उन तानों को… और ये औरतें इस तलाक़ शब्द को/खुद की तलाश में मुक्कमल कर देती हैं…”। पृष्ठ-86
जब रिश्तों में दूरियां महसूस होने लगे तो बना भी लेनी चाहिए। इसीलिए सरिता लिखती हैं- मैं तुम्हें मुक्त कर रही हूँ/इस रिश्ते की डोर से /कई बार मैंने महसूस किया है/तुम्हारी पीठ पर मेरा अदृश्य बोझ है”। पृष्ठ-117
समाज सभ्यता की सीढ़ियां चढ़ते हुए भी कितना असभ्य है ये किसी अकेले रहने वाली स्त्री से बेहतर कौन जान सकता है! जहां स्त्री को एक बाजारु वस्तु समझा जाता है। प्रेम का नाम लेकर भी स्त्री के शरीर से ही मतलब रखना चाहते हैं लोग। सरिता लिखती हैं “हर औरत को देख तुम्हारी यह जो जुबान मोलभाव की भाषा पर उतर आती है ना/वेश्यावृत्ति एक धंधा है औरत की जात बिकाऊ नहीं होती है”। पृष्ठ-115
पर वेश्या को भी हिक़ारत से नहीं देखा जाना चाहिए, उनके यहां वेश्याओं का भी दर्द है, किसानों की भी विवशता है और मासूम बच्चियां जो लोगों की हवस भरी निगाहों से रोज गुजरती है उनकी भी पीड़ा है। वे लिखती हैं- “वेश्याओं का जन्म मां के गर्भ से नहीं होता/वह तो खाली तश्तरी से उठकर/स्वार्थ के गहन अंधकार में/हवस की दीवार पर बिना जड़ की बेल सी चढ़ती है। पृष्ठ-55
अक्सर तवायफों को बेवफ़ाई का पर्यायवाची माना जाता है। खूब वाहवाही लूटी जाती है, उन शेरों पर जिनमें तवायफों के दुपट्टों को किसी के आसुंओं से न भीगने बात कही जाती है। सरिता उन स्त्रियों के मन में भी झाँकती हैं। वे प्रश्न करती हैं “वेश्याओं की दहलीज पर क्या किसी पुरुष ने प्रेम निवेदन किया होगा”। पृष्ठ-57
उनके यहां लड़कियां खुले आसमान में उड़ना चाहती हैं वे लिखती हैं” लड़कियां उड़ना चाहती है आसमान में/बुनना चाहती हैं वह अनगिनत सपने/…लड़कियां उड़ना चाहती हैं लेकर अपनी पीठ पर समस्त सृष्टि का भार”। पृष्ठ-109-110
स्त्रियों का जीवन इतना अपेक्षित रहता है कि पूरे जीवन उनकी कोई पहचान नहीं होती और जिस परिवार, जिस समाज के लिए भी अपने को खपा देती हैं उसमें उनका नाम लेवा कोई नहीं रहता। सरिता लिखती हैं” जब औरत मरी तो रोने वाले ना के बराबर थे/जो थे वह बहुत दूर थे/खामोशी से श्मशान पर आग जली और रात की नीरवता में अंधियारे से बतियाते बुझ गई”। पृष्ठ-104
लड़की का जन्म कभी मन्नतों से नहीं पाया जाता। लड़कियां पैदा हो जाती है बिना मां बाप के चाहे ,वे लिखती हैं- “बड़ी मां जैसे खेती में/अनचाहे धान को उखाड़ कर फेंक दिया करती थी/कुछ इसी तरह अनचाहा हुआ जन्म मेरा/…जैसे-जैसे बड़ी होती गई /घर के हर कोने में मैंने जगह बनाई/एक दिन बिना किसी के मन के तालों को खोलें मैं वहां से निकल गई हमेशा -हमेशा के लिए “। पृष्ठ-96
ऐसा नहीं कि उनका मन प्रेमशून्य है, उनके यहाँ प्रेम पर एक बहुत ही खूबसूरत कविता है वे लिखती हैं “मैं तुम्हें चूमना चाहती हूं/जैसे श्रद्धा से चूमता है कोई ईश्वर की दहलीज/और तुम्हारा मुझे चूमना कुछ इस तरह होगा/जैसे अनंत काल से पड़े अज्ञानता की राशि को/छूती है ज्ञान की रोशनी।” पृष्ठ-97
पाश ने लिखा था “सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना।”
सरिता भी लिखती हैं “वाकई समय बहुत खतरनाक है/जब केंचुए की पीठ पर दांत उग रहे हैं/और ऐसे समय में सपनों का मर जाना/समस्त सृष्टि का कालांतर में धीरे-धीरे अपाहिज हो जाना है। पृष्ठ-90
वेश्याओं का दर्द उनकी कई कविताओं में उभर के आता है वे लिखती हैं “उन बदनाम गलियों में रोज शाम/ खड़ी होती है मजबूरी/तरसती है चूल्हे की आग/…वह सजाती है अपने माथे प्रेम रहित लाल बिंदी/और तलाशती है रोज खाली डिब्बी में थोड़ा सिंदूर सम्मान का।” पृष्ठ-79
किसान वास्तव में असली भगवान, असली अन्नदाता होता है लेकिन हम उसे भगवान मानते हैं, जो पर्दे पर अभिनय करता है या क्रिकेट खेलता है सरिता को यह सत्य पीड़ा देता है वह लिखती हैं “हाथ से बल्ला घुमाने वाला/हमारा भगवान बन जाता है/पर्दे पर अभिनय करने वाला देवता हमारा/बन जाता है तो भूमि के गर्भ से अन्न पैदा करने वाला/क्यों हमारा गुलाम बन जाता है। पृष्ठ-77
जिस व्यवस्था ने हमें गुलाम बना कर रखा है, उस व्यवस्था को ढोने का क्या फायदा वे लिखती है” उस व्यवस्था से तुम हो जाओ मुक्त/जो तुम्हारी हथेली पर खींच देता है/एक रेखा भाग्य के सिंदूर की और छीन लेता है/तुम्हारी उंगलियों की ताकत।” पृष्ठ-70
क्योंकि अगर ऐसा ना किया तुमने तो- जिस दिन/तुम हठ करती हो एक कतरा उजाले का वो छीन लेता है तुम्हारी आंखों की पुतलियां।” पृष्ठ-79
किसी के बेवफा होने से स्त्री अपनी उम्मीद नहीं छोड़ती। “तुम्हारी बेवफाई की पीठ पर/मैं आज भी वफा लिखती हूं/डुबोकर रक्त में तिनके/मैं तुम्हारा विरह लिखती हूं।” पृष्ठ-91
सरिता जी के पास एक साफ और सहज मन है जो उनकी कविताओं को विश्वसनीय बनाता है। वे मुक्ति की बात करती है पर यह मुक्ति परिवार और प्रेम से मुक्ति की नहीं बल्कि रूढ़ियों और विडंबना से मुक्ति की बात है।
वे प्रकृति प्रेम और राजनीति जैसे मुद्दों की भी बात करती हैं उनमें आप रोशनी की उजास पाएंगे। सहा हुआ दर्द, देखे हुए से कई गुना ज़्यादा विश्वसनीय होता है, सरिता जी उन तमाम दर्द की साक्षी रही हैं, जो प्रायः स्त्रियों को सौगात में मिलते हैं । इस सहे दर्द ने उनकी कविताओं को एक अलग तासीर दी है।
सरिता जी की मातृभाषा हिंदी नहीं है लेकिन उनकी कविताएं एक छाप छोड़ती है। अभियक्ति के लिए उचित शब्दों का चयन और प्रस्तुतिकरण में वे कही पीछे नहीं दिखती है। स्त्री को पृथ्वी के समान धैर्यवान और सहनशील बताया जाता है और उसके इस धैर्य और सहनशक्ति को पुरुष अपनी ताकत समझ लेता है उसे अशक्त और अबला भी समझ लेता है और जो कुछ उसे वह देता है,वह देखता है, लेकिन उसके बदले में जो कुछ से मिलता है उसकी कोई गिनती नहीं करता। कमजोर ना होते हुए भी कमजोर दिखना स्त्री को बड़ाई के ढांचे में बांधता है और झूठी प्रशंसा की आस में अपना अस्तित्व नष्ट कर देती हैं।
लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता एक समय ऐसा आता है कि जब वह आजिज़ आ जाती है इन सारे कष्टों से और तब लिखती है “वह तोड़ना चाहती है/हर एक वो किनारा जो जंजीर बने उनके तन पर”।
स्त्री पुराने मिथकों को तोड़कर नया अस्तित्व बनाना चाहती है। वर्तमान समय में समाज की संवेदना और कोमल भावनाएं खत्म होने पर चिंता करते हुए वे लिखती हैं “जहां पर बैठकर वह पूरी बस्ती का चावल गेहूं पीसा करती थी चक्की में/बदले में आता था किसी न किसी घर से उसके लिए/माड़-भात पूरी बस्ती को घर समझकर खिलाने पिलाने का रिवाज/शायद लालबुढ़ी के साथ ही चला गया था।”
यह दिखाता है कि पूरे समाज को अपना समझने की जो भावनाएं हैं वह धीरे-धीरे कैसे खत्म होती जा रही है। वे समझती हैं कि प्रेम केवल कहने की बात नहीं होती प्रेम निभाने की बात होती है लिखती हैं “प्रेम वह था जो मैंने अभाव में भी जिया/तुम्हारे छोड़कर चले जाने के बाद भी उपहार में तुम्हारे दिए आंसुओं को/तुम्हारी बदनामी के भय से कभी अपनी आंखों से बहने नहीं दिया। पृष्ठ-4
युद्ध के प्रति एक शासक और एक मां के दृष्टिकोण में जो अंतर है वह बहुत सुंदर तरीके से सरिता जी ने लिखा है “युद्ध के नाम से जितना डरती है एक मां/उतना नहीं डरता एक राजा/मां भेजती है रणभूमि में अपनी नसों में बहता हुआ लहू/तो राजा केवल भेजता है/हथियारों से लैस एक सैनिक।
पिता के जाने के बाद मां के जीवन में क्या परिवर्तन हुआ मां की मुस्कुराहट कैसे खत्म हो गई यह एक बेटी ही देख सकती है “आईने के सामने रखी सिंगार की हर चीज मौन होकर संदूक में चली गई थी/धूल की परत में मां की मुस्कुराहट दब गई थी।”
पत्नी प्रेमिका और मां बनने के बीच में औरतों में कितने परिवर्तन होते हैं उसे समझने के लिए स्त्री का मन चाहिए पत्नी संस्कार से पूरी तरह से पति को समर्पित होती है उसके मन में एक कोमल प्रेमिका भी रहती है लेकिन साथ ही उसके पास एक देह भी है जो चाहती है कि उसे प्यार से स्वीकारा जाए लेकिन कभी-कभी वह अतृप्त ही रह जाती है। “संस्कार उसे पत्नी पद पर स्थापित करते हैं। मन में वह प्रेमिका का भाव रखती है लेकिन देह से अतृप्त और पति विहीन विधवा स्त्री सा कष्ट पाती है। सरिता साहसी स्त्री हैं वे लिखती है “मेरे भीतर रहती है एक ऐसी स्त्री/जो संस्कार से पत्नी है मन से प्रेमिका है/और देह से विधवा है।”
अहिंदीभाषी प्रदेश के होने के बाद भी सरिता जी के यहां भावनाओं को व्यक्त करने में भाषा कहीं आड़े नहीं आती है कहीं खटकती नहीं है और जो बातें उन्हें कहनी है वह बहुत ही सुंदर और स्पष्ट तरीके से कह पाती हैं। अपनी पीड़ा को ताक़त बनाना कम लोग जानते हैं। कोमल मन पर लगे ज़ख्म खत्म तो नहीं हो पाते पर लिखने से शायद उनकी टीस कुछ कम हो सके, उन पर कुछ मलहम लगे, इस उम्मीद के साथ सरिता जी को बहुत शुभकामनाएं।