वंदना सहाय
गणेशोत्सव की तैयारी पूरी हो चुकी थी और बप्पा जी नये सिल्कन परिधान में तरह-तरह के नैवेद्यों, धूप-दीप, छोटे बल्बों की लड़ियों के बीच बेडेकर परिवार के घर पधार कर आसन पर विराजमान हो चुके थे।
उमस-भरा मौसम देख कर घर के सदस्यों ने एक टेबुल-फैन का धीमा रुख उनकी ओर कर दिया था। सभी हर तरह की बातों पर ध्यान दे रहे थे ताकि पूजा में कोई कसर न रह जाए। बस, कभी घर के मुखिया रह चुके बूढ़े श्रीधर जी ही ऐसा कुछ नहीं कर पा रहे थे। ऐसा नहीं कि वे बप्पा के प्रति समर्पित नहीं थे। पर बुढ़ापे ने उनके पैरों की ताकत छीन ली थी, जिससे बिना किसी की मदद लिये वे चल नहीं पाते थे। उनका भी मन हो रहा था बप्पा जी के दर्शन करने का। उन्होंने एक-एक कर बेटा, बहू, पोते और पोती को आवाजें लगायीं। पर सब बेकार…
हार कर वे सोचने लगे- जब तक शरीर में ताकत थी, वे स्वयं बप्पा के सामने माथा टेक सारे परिवार की खैर मनाते थे। अब यह काम उनका परिवार कर रहा है। उनकी किसी को जरूरत नहीं। बप्पा से सभी को कुछ पाने की उम्मीद रहती है। वह सिर्फ देता है, कुछ लेता नहीं। अगर बप्पा भी अशक्त हो, खाने के लिए लोगों पर आश्रित हो जाए, तो वह भी बप्पा नहीं रहेगा। लोग नैवेद्य अर्पण करना भी छोड़ देंगे।
शाम पंख फैलाये कमरे में उतर रही थी और बूढ़े श्रीधर जी बिन बिजली-पंखे वाले घर के कमरे में गंदी चादर और कपड़े में असहाय पड़े थे। इतनी आपाधापी में उन्हें कौन समय देता?
याद आया- सुबह के नाश्ते के बाद लोग उन्हें दिन का खाना देना भी भूल गए थे।
बाहर से आरती की आवाज आ रही थी- सुखकर्ता, दुखहर्ता…
उनका मन पूजा-दर्शन से विरक्त हो गया और वे हाथ जोड़कर बप्पा से बोले- “हे बप्पा, किसी को मेरी दुआ की जरूरत नहीं है। अभी तो बस इतना ही करना कि मेरे भूखे पेट और शाम की तलब मिटाने के लिए एक प्याली गर्म चाय भिजवा देना।”