श्रेयसी वैष्णव श्रेया की ग़ज़ल: मीसाक़-ए-मुहब्बत

श्रेयसी वैष्णव श्रेया

जुर्म को उसने रिहा उसकी अदालत से किया
पर यही जो जुर्म है किसकी इजाज़त से किया

क़त्ल करते हैं वही फिर दफ़्न भी करते वही
कौनसी आफत है जाने किस ज़रूरत से किया

इक समंदर है यहां जो खा गया कश्ती कई
हर दफा उसने ये मीसाक़-ए-मुहब्बत से किया

वो ही क्यों समझी नहीं हर बार की मक्कारियां
उसको क्यूं ऐसा लगा उसने शराफत से किया

कौनसा कपड़ा वो पहनी थी बनाया ब्वॉयफ्रेंड
हाल जो इतना बुरा इतनी तबीयत से किया

लो वही गांधारी फिर से आ गई उसको कहां
फ़र्क पड़ता है किया जिसने किस सौलत से किया

भीष्म तो बैठे हैं लेकिन आज भी लाचार हैं
इसलिए जिसने किया पूरी हिमाकत से किया