Sunday, November 17, 2024
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स्वप्न का प्रतिबिंब: प्रार्थना राय

प्रार्थना राय
देवरिया

रात सपने मेरे खिल गए हर कहीं
प्यार के कतरों से नम हुई दिल जमीं
बन गयी दुनिया नई कुछ ही पल में
दिल ने दी आवाज रुक जायें यहीं

चल दिए तन्हा हम अंजान सफर पर
फिर छा गये उम्मीद के बादल सर पर
नयन ताल में उभर रहा है अक्स तेरा
आस के मोती सज गए हैं दिलो-जिगर पर

यादों की चादर ओढ़े तकती हूं गगन को
सितारों के नाम तुम पे रख समझाती हूं मन को
चाँद भी अजब अभिनय दिखलाने लगा
सूरज भी उनींदा सा निहार रहा चमन को

गीत सुखद स्मृतियों के गाने लगी मैं
आईने में खुद को देखकर इतराने लगी मैं
इक नयी भोर के स्वागत के लिए
हृदय दीपक में बाती सजाने लगी मैं

प्रेम की हर संधि है स्वीकार मुझको
दो हमारे मनुहारों का आकार मुझको
भरमाते हैं स्वप्न अक्सर मायावी बनकर
भर जाए मन, दे दो इतना प्यार मुझको

यूं तो मिलन पर्व का आगमन होना था
लेकिन मुझे तो ये स्वप्न भी खोना था
विरह अगन में न आई नींद रात भर
और भोर होते ही दिल को बस रोना था

मन भँवर से उठ रही है इक लहर
हृदयद्वंद से शंकित हो भटक रहा इधर-उधर
वक्त की इस पीर का ना लेखा-जोखा कोई
मिला क्या है अब तक मुझे, चैन गवांकर

नर्म अंतस में बह रही है अश्रु सरिता
धुल गई मन पटल पर लिखी प्रेम संहिता
उर में संजोये भाव लेकर मैं फिर से
विरह की स्याही से लिख रही हूं कविता

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