सरकारी महकमे में छोटे अधिकारियों और कर्मचारियों का आला अधिकारियों के समक्ष नतमस्तक होना तो वर्षों से एक अघोषित नीति बन चुका है, लेकिन सरकारी विभाग के आला अधिकारी ही ठेकेदारों के आगे घुटने टेक दें, ये अपने आप में बड़े ताज्जुब की बात है। खासतौर पर सीधे जनता से जुड़े सरकारी विभागों में साहबों का ठेकेदार के आगे हथियार डाल देना जनता के लिए दुखदाई तो है ही, सरकार के लिए भी बहुत बड़ा सिरदर्द है। कहीं इस दुख से उपजा जनता का आक्रोश सरकार पर भारी न पड़ जाए और जनता बदलाव के लिए विवश हो जाए।
यहां बात हो रही है मध्य प्रदेश के बिजली विभाग की, जहां छोटे से लेकर बड़े महत्वपूर्ण कार्य भी ठेकेदारों के हवाले कर दिए गए हैं। प्रदेश की जनता से सीधे सरोकार रखने वाले इस विभाग में जनता को कोई परेशानी न हो और ठेकेदार अपने दायित्वों को भली भांति पूरा कर सकें, इसकी जिम्मेदारी विभाग के आला अधिकारियों की है, लेकिन पूरी व्यवस्था ठेकेदारों के हवाले कर अधिकारी घर जाकर चादर तान के सो चुके हैं। अब जनता परेशान होती रहे उससे अधिकारियों को कोई मतलब नहीं। अब जो ठेकेदार अपने ही कर्मचारियों के शोषण के नित नए रिकॉर्ड बना रहे हों उनसे जनता की भलाई के बारे उम्मीद करना बेमानी होगा।
सबसे हास्यास्पद बात तो ये है कि प्रदेश की चार बिजली कंपनियों के मुख्यालय वाले शहर जबलपुर में बिजली व्यवस्था और उपभोक्ता सेवाएं पूरी तरह चरमरा चुकी हैं। लेकिन अधिकारियों को इससे कोई मतलब नहीं, आखिर ऐसी क्या बात है कि अधिकारी ठेकेदारों के आगे बेबस नजर आ रहे हैं। जबलपुर सिटी और ग्रामीण सर्किल से साथ ही पूरे जबलपुर रीजन के उपभोक्ता अपनी समस्याओं को लेकर बिजली कार्यालयों के चक्कर लगा-लगाकर हलाकन हो चुके हैं, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। इस बारे में जब अधिकारियों से जवाब मांगा जाता है तो वो एक ही बात कहते हैं, क्या करें स्टाफ नहीं है और कंपनी प्रबंधन फील्ड के लिए मैनपावर ही उपलब्ध नहीं करवा रहा। कमोबेश पूरे प्रदेश की यही स्थिति है।
पिछले कुछ समय में जबलपुर में अघोषित पावर कट ने उपभोक्ताओं को गर्मी में खासा परेशान कर रखा है, उस पर अनाप-शनाप बिलिंग ने उपभोक्ताओं के सब्र का बांध ही तोड़ दिया। 35 से 40 दिन में की जाने वाली मीटर रीडिंग ने एक ओर जहां उपभोक्ताओं पर बेजा आर्थिक भार डाला है, वहीं ये बात भी समझ से परे है कि जबलपुर में स्मार्ट मीटर नहीं लगे होने के बाद भी मीटर रीडर द्वारा रीडिंग किए बिना ही एसएमएस के माध्यम से उपभोक्ताओं को बिजली बिल पहुंच रहे हैं। जब उपभोक्ता इसकी शिकायत करता है तो अधिकारियों का एक ही जवाब होता है बिल तो जमा करना पड़ेगा, क्या करें हम पर भी प्रबंधन का बहुत प्रेशर है।
वहीं सिटीजन चार्टर के अनुसार शहरी क्षेत्रों में चार घंटे में फ्यूज ऑफ कॉल की शिकायत दूर होना तो दूर 40 घंटे तक अपनी शिकायत के समाधान के लिए परेशान होते रहते हैं। आला अधिकारी से बात करो तो वही रटा रटाया जवाब मिलता है, क्या करें स्टाफ ही नहीं है। वहीं मेंटेनेंस के नाम पर खानापूर्ति करने वाले अधिकारी फाल्ट आने पर वही एक जवाब देते हैं क्या करें स्टाफ ही नहीं है।
ये बात समझ में नहीं आती कि जब कंपनी प्रबंधन ने अनेक ठेकेदारों के माध्यम से बड़ी संख्या में मैनपावर उपलब्ध करवाया है तो फिर मैनपावर की कमी क्यों बनी रहती है। क्या ठेकेदार निर्धारित संख्या से कम मैनपावर उपलब्ध करवा रहा है और सरकार तथा कंपनी प्रबंधन को हर साल करोड़ों रुपए का चुना लगाया जा रहा है? ये देखने की जिम्मेदारी भी आला अधिकारियों की है, लेकिन पता नहीं ठेकेदारों के आगे घुटने टेक चुके अधिकारियों का ऐसा कौन सा हित प्रभावित हो रहा है, जो ठेकेदारों के मामलों में चुप्पी साध लेते हैं।