अजय कुमार शर्मा
1970-80 का दशक हिंदी सिनेमा में अनेक बदलाव लेकर आया था। मध्यम वर्ग को प्रमुख रूप से चित्रित करती फिल्मों के इस दौर में अपने मध्यवर्गीय अनुभवों के साथ कई नए निर्देशक, सितारे, संगीतकार और गायक भी सामने आए। मध्यम वर्गीय परिवार से आई एक गायिका हेमलता ने भी इस दौर में अपनी पहचान बनाई। अपने प्रेम और भक्ति गीतों के लिए प्रसिद्ध हुई हेमलता ने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, कल्याण जी-आनंद जी जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ तो काम किया ही लेकिन रविंद्र जैन और उषा खन्ना के साथ उन्होंने सबसे ज्यादा गाने गाए। ‘अँखियों के झरोखों से, मैंने देखा जो साँवरे’, ‘कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया’, ‘तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है’, ‘तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले, संग गा ले’, ‘मेघा ओ रे मेघा, तू तो जाए देश-विदेश’, ‘जब दीप जले आना, जब शाम ढले आना’ जैसे उनके गीत आज भी गीत-संगीत प्रेमियों में बेहद लोकप्रिय हैं।
हेमलता के जीवन के अनेक अहम पहलुओं को सामने लाती एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘दास्तान-ए- हेमलता’ हाल ही में सर्वभाषा ट्रस्ट से आई है, जिसके लेखक हैं वरिष्ठ पत्रकार डॉ. अरविंद यादव। पुस्तक में हेमलता के बचपन से लेकर उनकी सफलता तक की अनेक प्रमाणिक और रोचक जानकारियां हैं।
हेमलता का जन्म 16 अगस्त 1954 को हैदराबाद में हुआ। उनके पिता जयचंद भट्ट एक बड़े शास्त्रीय गायक थे। शास्त्रीय संगीत की स्वर लहरियों के बीच ही उनका लालन-पालन हुआ। बाद में जयचंद भट्ट मद्रास विश्वविद्यालय में म्यूजिक के आचार्य बने तो परिवार मद्रास आ गया। छुट्टियों में हेमलता अपनी ननिहाल गोंदिया जाती जहां उन्हें भरपूर प्यार और आजादी मिलती। यहां वे रेडियो तो सुनती ही फिल्में भी खूब देखतीं। उन्हें फिल्मों के गाने तुरंत याद हो जाते, खासतौर पर लता मंगेशकर के गीत जो उन्हें बेहद अच्छे लगते थे। नानी भी जब-तब उनसे लताजी के गीत सुनती। एक गीत “दिल अपना और प्रीत पराई” तो बार- बार सुनती। नानी के साथ ही गोंदिया के लोग भी उन्हें ‘लता’ कहकर बुलाने लगे थे। कुछ दिनों बाद उनके परिवार कलकत्ता चला आया। उनके पिता विद्यार्थियों को संगीत सीखते तो नन्हीं हेमलता भी अपने पिता की नकल करती। तब तक पिता हेमलता को नहीं सीखा रहे थे। तब उनके शिष्य गोपाल मल्लिक ने अपने गुरु को आश्चर्यचकित करने और हेमलता की प्रतिभा को सबके सामने लाने का एक साहसी प्रयास किया। रंजीत स्टेडियम में आयोजित एक भव्य संगीत समारोह में जिसमें लता मंगेशकर, उषा मंगेशकर, सुधीर सेन, हेमंत कुमार, संध्या मुखर्जी जैसे बड़े-बड़े कलाकार भाग ले रहे थे, उसमें हेमलता को “बेबी लता” के नाम से गाने का मौका दिया गया। बिना पिता जयचंद को बताए उन्हें भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। सात वर्ष की हेमलता की आवाज और उनका आत्मविश्वास डेढ़ लाख दर्शकों को इतना पसंद आया कि वंस मोर… वंस मोर… के शोर के बीच हेमलता को एक के बाद एक लताजी के बारह गाने गाने पड़े जिसमें ग्यारह बांग्ला गीत थे और एक था हिंदी गीत “ज्योति कलश छलके”। इस संध्या में उपस्थित बंगाल के मुख्यमंत्री विधान चंद्र रॉय इतना प्रभावित हुए कि मंच पर जा पहुंचे और हेमलता को गले लगाकर स्वर्ण पदक देने की घोषणा की। पिता की भी प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा।
इस बीच मोतियाबिंद के कारण उनके पिता की आंखें खराब हो गई लेकिन संगीत साधना जारी रही। इसी दौरान रविंद्र जैन कलकत्ता पहुंचे और जयचंद से मिले। हेमलता का गीत सुनकर वे भी प्रभावित हुए। क्योंकि रविंद्र जैन खुद लिख सकते थे और संगीत भी तैयार करते थे इसलिए सब मिलकर स्टेज़ शो करने लगे जो खूब लोकप्रिय होने लगे। तब सभी ने बंबई जाने का फैसला लिया। वहां उस्ताद अल्लारखा साहब हेमलता के भाई विनोद को अपने बेटे जाकिर हुसैन के साथ ही तबला वादन सिखाने लगे और उन्होंने ही गोरेगांव की पात्रा चाल में रहने का इंतजाम भी कराया। इस बीच नौशाद ने भी हेमलता को सुना और उन्हें पांच साल के लिए अनुबंधित कर लिया केवल अपने साथ गाने के लिए। यह बात अखबारों में आ गई और बंबई में एक नई गायिका के आने का हल्ला हो गया। कई बड़े संगीतकार हेमलता से मिलने आने लगे। एक दिन लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने स्टूडियो बुलाकर कुछ लाइनें हेमलता से गवाई और अगले दिन ताड़देव फेमस रिकॉर्डिंग स्टूडियो में आने को कहा। पिता और बेटी दोनों अगले दिन जब वहां पहुंचे तो पता चला उन्हें वहां रिकॉर्डिंग के लिए बुलाया गया है तो दोनों नौशाद के कॉन्ट्रैक्ट को याद करके बाहर से ही वापस आ गए। अगले दिन यह जानकर कि उन्हें लता मंगेशकर जी के साथ गाना था जो काफ़ी देर इंतजार करके वहां से गईं ,दोनों को बेहद दुख हुआ और उन्होंने नौशाद से कॉन्ट्रैक्ट तोड़ दिया।
पहला गाना उन्हें उषा खन्ना के साथ मिला फिल्म थी “एक फूल एक भूल” और गाना था “दस पैसे में राम ले लो”। अब मानो हेमलता के संघर्ष के दिन खत्म होने वाले थे। गाना खत्म होने के कुछ मिनटों बाद ही कल्याण जी-आनंद जी का उसी स्टूडियों में रुकने का संदेश आया। दूसरा गाना उन्होंने मुकेश जी के साथ रिकॉर्ड किया। गाने के बोल थे “ले चल ले चल मेरे जीवन साथी” फिल्म थी विश्वास। अगले ही दिन इसी फिल्म का एक और गीत रिकॉर्ड हुआ जिसमें उनके साथ थे मुकेश, महेंद्र कपूर। गीत के बोले थे- ढोल बजा, ढोल ढोल जानिया। इसके बाद हेमलता को फिल्म इंडस्ट्री में काम मिलने लगा। आशीर्वाद, ज्योति, माता महाकाली, रूप रुपैया जैसी अनेक फिल्मों के लिए उन्होंने गाया। इस समय उनकी उम्र मात्र चौदह वर्ष की थी। पहली बार सुपरहिट गाना उनकी जिंदगी में लता मंगेशकर के साथ आया। फिल्म का नाम था महबूब की मेहंदी। गीत के बोल थे- झिलमिल तारों की बारात में भीगी-भीगी बरसातों में…। लताजी के साथ दूसरा गया युगल गीत भी सुपरहिट हुआ जो फिल्म कच्चे धागे से था। फिर तो रविन्द्र जैन के साथ की गई अनेक फिल्मों- गीत गाता चल, सलाखें, तपस्या, चितचोर, फकीरा, दुल्हन वही जो पिया मन भाए, अंखियों के झरोखे और सुनयना से वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुंची। पुस्तक में उनकी शादी, उसकी मुश्किलों से लेकर अभी तक की उनकी जिंदगी के अनेक अन्य पहलुओं को भी उजागर किया गया है ।
चलते-चलते
प्रख्यात संगीतकार रोशन नए गायकों को फिल्म इंडस्ट्री में इंट्रोड्यूस करने के लिए हर साल एक बड़ी “रोशन नाइट” बंबई में किया करते थे जिसमें इंडस्ट्री के सभी संगीतकार, गायक, निर्माता-निर्देशक और अभिनेता-अभिनेत्रियां शामिल होते थे। ऐसे ही एक नाइट के लिए उन्होंने हेमलता का चुनाव किया और यह तय किया कि वह उनके लिए लता मंगेशकर द्वारा गाए गए गीत अपनी आवाज़ में प्रस्तुत करेंगी।
कार्यक्रम वाले दिन इतनी बारिश हुई कि टैक्सी वाले ने हेमलता और उनके परिवार को मूसलाधार बारिश के बीच अपनी टैक्सी षण्मुखानंद हॉल से काफ़ी दूर रोक कर सभी को उतार दिया। बाहर सड़क पर घुटनों तक पानी बह रहा था। कोई और चारा न देख सभी भीगते हुए हॉल की तरफ़ चल पड़े। पानी के तेज बहाव के कारण हेमलता की चप्पलें भी पानी में वह गई और इंट्री के लिए दिए गए पास भी। किसी तरह पूरा परिवार हॉल के गेट पर पहुंचा तो गेटकीपर ने बिना पास के अंदर जाने से मना कर दिया। तभी रोशन के सहायक उन्हें बाहर ढूंढने आए और तुरंत अंदर ले गए क्योंकि अगला गाना उन्हीं का था जो उन्हें मोहम्मद रफी साहब के साथ गाना था। गीत था- जो वादा किया वह निभाना पड़ेगा … इस दिन उन्होंने अपने हर गाने पर भरपूर तालियां बटोरी।
रोशन साहब हेमलता जी की आवाज को इतना पसंद करते थे कि अपने अंतिम समय में उन्होंने आधी रात को हेमलता को बुलाकर अपना पसंदीदा गाना कई बार सुना था और उसके बाद ही प्राण त्यागे थे।