अँजुरी भर प्रेम- निधि भार्गव

कहाँ कहाँ से ढूँढ लेती हो मुझे ‘मानवी’?

तुम्हें ढूँढने की जरूरत है क्या, मानव?

पा भर लेना ही तो मौहब्बत का अंजाम नहीं होता है न
यूँ तुम्हारा थोडा़ थोडा़ सा आ जाना भी मुझे पूरा कर जाता है।
खामोश निगाहों से छू लेना भी तो पराकाष्ठा है प्रेम की।
लहू दौड़ता है जिस तरह मेरी रगों में
तुम भी तो शामिल हो मुझमें उसी तरह
आती जाती हर साँस तुम्हारी साँसों से जोड़ जाती है मुझे।
तुम्हारी बातें तुम्हारे एहसास ही तो सहारा है अब मेरे जीने का।
सोने जागने उठने बैठने से लेकर हर तरह से तुम्हारा इख्त़ियार है मुझपर।
फिर भला बोलो, क्यूँ तलाशूँ तुम्हें मैं,
आडंबर ओढे़ स्वार्थी दुनियाँ की भीड़ में?
तुम तो चुपके से इस तरह आए हो मुझमें कि कब मैं, तुम सी हो गई, तुम्हारे रंग में रंग गई पता ही नहीं चला
तुम्हें क्या लगता है तुम्हारी चुप्पी का सबब जानती नहीं हूँ मैं।
जिसने कभी सुबह के उजाले और रात के अँधेरे जिएं हों तुम्हारे साथ वो क्यूँ नहीं समझेगी मोम से कलेजे का यूँ अचानक पत्थर हो जाना। अगर कभी तुम्हारी मुस्कुराहटों को जिया है मैंने, तो तुम्हारे गमों में भी तो भागीदार रही हूँ मैं।
इल्तजा़ ही कर सकती हूँ, प्रिय
परिस्थतियों से घबरा कर खो मत जाना
मैं जी नहीं पाऊँगी तुम बिन और फिर
यही एक विकल्प तो नहीं है न गमों से उबरने का।एक संग एक साथ गुजारेंगे हम ये गर्दिशे सफ़र, उड़ती हुई धूल कभी हमारा रास्ता नहीं रोक पाएगी। माना, प्रेम ही सबकुछ नही होता, पर कभी कभी :अंजुरी भर प्रेम’ जीने का मकसद ही बदल देता है, इससे ज्यादा रिश्ते चाहते ही क्या हैं एक दूसरे से
तो क्या मैं उम्मीद करूँ ‘मानव’, कि अब ये कदम रूकेंगे नहीं अपितु कर्मठ हो बढ़ते रहेंगे आशाओं, उम्मीदों, सफलताओं की असीमित डगर पर।
मानों तो भरोसा तो करो, मैं अदृश्य रहकर भी संबल बन कर खडी़ रहूँगी तुम्हारे साथ हर परिस्थिति में हताश और निराश होकर मुझे यूँ तो न ठुकराओं।
मीठी सी दुआ बनकर लग जाना चाहती हूँ तुम्हें, मेरे आग्रह को अपने हृदयांगन में विस्तार दे दो।

मैं अनुनय विनय के कर जोडे़,
वार देना चाहती हूँ अपना अस्तित्व तुमपर।

-निधि भार्गव मानवी