अंधेरा- अनुप्रिया

1.अंधेरा
हम अंधेरों से निकलकर
आखिर अंधेरों तक ही पहुँच जाते हैं
रोशनी का एक सिरा
जो बंधा था मुझसे
जाने कैसे खुल गया है….!

2.
दुनिया की हर दीवार पर उग आयी है
सीलन सी
हर कोनों और खिड़कियों में
मकड़ी के जालों सी
मेरे तुम्हारे होठों पर
सूखी पपड़ियों सी
फेफड़ों में घुटती हुई सांस सी
जिसे तुम जो चाहो कह सकते हो
लेकिन मेरी नजरों में
वो अंधेरा है सिर्फ अंधेरा
जिसमें मैं डूबती जाती हूँ
छटपटाती हूँ
पटकती हूँ हाथ पैर
और देखती हूँ
तैरती हुई अपनी ही लाश
अंधेरों के ऊपर…!!

3.

सिर्फ कहो नहीं
तुम भी ढूँढो
कि
अंधेरों के भीतर ही कोई सुराख हो
हो कोई रास्ता
उजालों का…!

-अनुप्रिया