आज़ाद ख़याल को सज़ा-ए-मौत- नरेश शांडिल्य

तुमने दी
आज़ाद ख़याल को सज़ा-ए-मौत
और डाल दिया उसे सींखचों के पीछे

एक दिन…
तुमने सोचा
जेल में पड़े-पड़े अब तक वो
हो चुका होगा पागल
नोंचता रहता होगा अपने बाल
सींखचों से टकरा-टकरा कर
तोड़ चुका होगा अपना सर

और एक रात…
जब तुम्हें सचमुच ही
उसकी बदहाली देखने का शौक़ चर्राया
तुम भौंचक्के रह गए
उसे गहरी नींद में सोता देख कर
पहले से ज़्यादा उसके मजबूत
और चौड़ाए कंधों को देखकर
तुम घबराए-से, सकपकाए-से
देखने लगे अपनी ही परछांई

तुम
जो उड़ाने आए थे उसकी खिल्ली
चौंक पड़े
काल कोठरी की दीवारों पर
देखकर उसकी इंकिलाबी कविताएं
इतना छीन लेने के बाद भी
छीन नहीं सके तुम
उसकी अपनी आग में सिकी
आज़ाद ख़याली

लानत है, लानत है
लाख लानत है तुम पर
डूब कर मर क्यों नहीं जाते तुम
चुल्लूभर आज़ाद ख़याली में?

-नरेश शांडिल्य