आलोचना- अनिल कुमार मिश्र

सुनो आलोचना!
तुम मुझे बहुत प्रिय हो
पर जब भी तुम
दूसरों के हृदय से निकलकर
मेरे कर्ण-पटल पर चोट करती हो ना
मैं सहज भाव से
तुम्हें अंतस्थल में
विश्राम करने की
आत्मिक अनुमति
दे देता हूँ
तुम अपनी आदत से
बाज तो आती नहीं
मस्तिष्क के एक-एक
नसों को
निचोड़ती रहती हो
अनवरत पीड़ा देती हो
मैं तुम्हारी दी हुई
पीड़ा से प्रेरित होकर
तुम्हारे श्री चरणो से
केश तक की अतुलनीय
सुंदरता पर
कविताएँ, कहानियां,नाटक और
उपन्यास लिखकर
छिप छिपकर
उद्यानों में तुमसे
मिलते हुए
लिव इन रिलेशनशिप
सफलतापूर्वक
निभाने के बाद
तुम्हारी विनती पर
तुम्हें अपना
बना ही लेता हूँ

-अनिल कुमार मिश्र ‘आञ्जनेय’
गाँधी नगर पूरब,
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