कुण्डलियां- स्नेहलता नीर

1
रोटी के लाले पड़े,भटक रहे मजदूर।
काम, दिहाड़ी के बिना,आये घर से दूर।।
आये घर से दूर, कमाने को कुछ पैसे।
दिखा रहे दिन आज, निवाले मिलते कैसे।
कोई करता मौज, किसी की किस्मत खोटी।
विनती है भगवान, सभी को देना रोटी।।

2
रोटी प्रिय सबको सदा, रंक या कि हो भूप।
शांत करे सबकी क्षुधा, इसके विविध स्वरूप।।
इसके विविध स्वरूप, कला, सेवा श्रम सम्मत।
करती तन-मन पुष्ट, बदल देती है रंगत।
खाते छप्पन भोग, रकम जो पाते मोटी।
दिन भर करते काम, श्रमिक तब पाते रोटी।।

3
रोटी की ये भूख भी ,करवा दे वो काम।
जिसका मिलता बाद में,बहुत बुरा अंजाम।।
बहुत बुरा अंजाम, नाम बदनाम कराये।
बेड़ी पड़ती-हाथ, जेल की हवा खिलाये।
भूख मरोड़े आँत, सिहरती एड़ी चोटी।
खुशियाँ होतीं मीत, चैन की मिलती रोटी।।

4
रोटी होती कीमती, करो नहीं बर्बाद।
भूखे को दो प्रेम से, खाए लेकर स्वाद।।
खाए लेकर स्वाद, तृप्त तन-मन हो जाए।
देकर आशीर्वाद, तुम्हारी महिमा गाए।
‘नीर’ भूख की पीर, बढ़ी ज्यों लगे चिकोटी।
श्रमिक बहाकर स्वेद, कमाता है दो रोटी।।

5
रोटी सूखी खा रहा, बेबस है मजदूर।
महँगाई की मार से, दीन-हीन मजबूर।।
दीन-हीन मजबूर, व्यथा अब किसे सुनाए।
बेटी हुई जवान, ब्याह की फिक्र सताए।
‘नीर’ बना कृशकाय, बदन पर फटी लँगोटी।
धन होता जो पास, चुपड़ कर खाता रोटी।।

-स्नेहलता नीर