चराग-ए-मुहब्बत- रकमिश सुल्तानपुरी

मुहब्बत की ख़ातिर छुपा मुश्किलों को
यूँ ज़ाया न करना कभी आंसुओं को

सज़ा कैसे देगे भला मुल्जिमों को
जो अंज़ाम देते रहे हादसों को

मेरे क़िरदार की यार कमजोरियाँ कुछ
पता चल गयी हैं मेरे मुखबिरों को

बुझेगी नहीं ये चराग-ए-मुहब्बत
ख़बर जाके कर दो ग़मे आंधियों को

यहाँ राजनेता बनाते है मुद्दे
कभी मंदिरों को कभी मस्जिदों को

सुनो तुम ख़ुदा ख़ाक उनको मिलेगा
जो पूजे उमर भर महज़ पत्थरों को

उजाला जरूर एक दिन होगा रकमिश
भरोसा रहा रात भर जुगनुओं को

-रकमिश सुल्तानपुरी