तुम्हारा कंधा- श्वेता राय

तुम्हारा कंधा
प्रभु की बनाई वो कील है
जिस पर टँगे हुए हैं कई लोगों की प्रत्याशाओं के झोले

फिर भी निर्द्वंद
तुम जानते हो ब्रह्मपुत्र की तरह बहना

हल हो या गांडीव
या हो उम्मीदों का बस्ता
ये सहजता से उठा लेता है सबका भार

ध्रुव की तरह अटल है इसपर किया जाने वाला विश्वास

बच्चे के लिए
ये हिमालय का उत्तुंग शिखर हैं
जहाँ पर बैठ वो समझता है स्वंय को भूपति
तो जननी के लिए है जनक के बाद की आश्वस्ति

पिता के लिए है ये भरोसा कि सुपोषित करेगा ये मेरा मान अपने कंधे पर

बित्ते दो बित्ते का तुम्हारा कन्धा
तुम्हारी सहचरी के लिए गंगा का वो डेल्टाई क्षेत्र हैं
जहाँ फलते फूलते हैं उसकी इच्छाओं के सुंदर वन

तुम्हारे कंधे पर
फैली हुई हैं पर्वत श्रृंखलाएँ
जिनके पृष्ठ भाव में डूबता है सूरज
शीर्ष पर उगता है चन्द्रमा
और वक्ष स्थल पर बहती हुई नदिया सुनाती हैं जीवन राग

तुम अपने कंधे पर ढ़ोते हो धूप छाँव

इनके ही बल पर तुम
निर्जन में भी बसा लेते हो गाँव
इनके सामर्थ्य पर ही तुम्हारा विश्वास पाता हैं ठाँव

कोई रंग
कोई अलंकार
कोई शृंगार
इसकी विशिष्टता को नहीं कर सकता चिन्हित

इसकी बलिष्ठता ही इसका सौंदर्य है
जिसको नाँव बना
पार करते हैं तुम्हारे परिजन भव सागर

बेहिचक
बेधड़क
बिना रुकावट

अपने क्षणिक जीवन में
हर स्त्री चाहती है एक ऐसे ही पुरुष का साहचर्य
जिसके कंधे पर वो डाल कर अपने मन का बोझ,
हो सके निश्चिंत
जीवनपर्यंत….

-श्वेता राय