तुम्हारे लिए- सरस्वती मिश्र

तुम्हारे दर्द का गरल
समेट लेना चाहती हूँ
अपने होठों और हृदय के ठीक बीच में
तुम्हारे प्रेम में बहुत बार
नीलकंठ हो जाना चाहती हूँ मैं

तुम्हारे कंठ में हँसी की घण्टियाँ बाँध
अपनी मुस्कराती आँखों से
मारना चाहती हूँ लम्बी फूँकें
ताकि अनवरत बजती रहें घण्टियाँ
उन घण्टियों की गूँजती
अनुगूँज हो जाना चाहती हूँ मैं

जड़ों समेत उखाड़ लेना चाहती हूँ
तुम्हारे अन्तर्मन में उगे
पीड़ा के सारे झाड़-झंखाड़
उनके स्थान पर बो देना चाहती हूँ
अपने प्रिय बेला के तमाम पौधे
बेला के श्वेत फूलों से सुवासित मन पर
लिख देना चाहती हूँ मैं
स्वप्नों में हुई तमाम बतकहियाँ

टूटती-जुड़ती स्वप्नों की लड़ियों से
तुम्हारे जीवन की अस्थिरता को
बाँध लेना चाहती हूँ मैं
तुम्हारी उदासियों के होठों को
सिल देना चाहती हूँ
मुस्कान के धागे से
चाहती हूँ कि भीग जाए
मेरी आँखों से हुई बारिश में
तुम्हारी बीती ज़िन्दगी की किताब

हर्फ़-हर्फ़ तुम मुझे पढ़ो
हाँ, तुम्हारे लिए
किताब हो जाना चाहती हूँ मैं

-सरस्वती मिश्र