दीवारें- प्रशांत सेठ

दीवारें जब होती हैं
अपने शैशव में
तब टिकी होती हैं
ग़लतफ़हमियों की नींव पर
खड़ी होती हैं
अहंकार की सीमेंट से
स्वार्थ की ईंटों को जोड़कर
और इस तरह बँट जाता है
“हम” का आँगन
“मैं” और “तू” में
इन दीवारों में होता है
एक दरवाजा सम्भावना का
जिसके दोनों तरफ
सदभावना की कुण्डी में
लटकते हैं घृणा के ताले
दीवारें गुमा देती हैं
चाबी प्रेम की
दीवारें नासमझ होती हैं
रिश्तों के दरमियाँ

दीवारें जब
बड़ी हो जाती हैं
सियासत की गोद में
तब इस पार से उस पार
नहीं बहतीं
सौहाद्र की हवायें
नहीं सुनायी देतीं
“ह” और “म” को
एक दूजे के ह्रदय की धड़कन
बंद हो जाती हैं सदा के लिये
एहसास की खिड़कियाँ
और सम्भावना के दरवाजे
नफरत के मदरसे में
दीवारें जवाँ हो जाती हैं
मजहबों के दरमियाँ

दीवारें जब
और बड़ी हो जाती हैं
तो समझदार हो जाती हैं
तब खुल जाती हैं इनमें
कुछ विशेष खिड़कियाँ
और खुल जाते हैं कुछ दरवाजे
पिछली गली में
इन्ही दरवाजों से फिर
बेचीं जाती हैं कड़वाहटें
इन खिड़कियों में से
हाथ मिलाते हैं कुछ बड़े लोग
और घर ले आते हैं
मुनाफा
समझदार दीवारें व्यापार करती हैं
नफ़रतों के दरमियाँ

-प्रशांत सेठ