मधुमास की बेला- राजीव कुमार झा

नया सौंदर्य और भी आपका
बादल की ओट में
चाँद थोड़ा छिप गया
इस अँधेरे में चाँदनी
पेड़ की ओट में जाकर खड़ी है
रात का चेहरा
कोई झरना गिरता
कितना अकेला कोई सपना
कितने पहर के बाद आया
कितना सन्नाटा बचा
उस राह में काश कोई ठहरता
अकेला मन फिर क्यों भटकता
उस समय बादल पास आया
आकाश से पानी बरसता
मन अकेला चुपचुप चहकता
तब नदी की धार में तुम सा ठहरता
ओ स्वप्नसुंदरी अभिसारिका
रजतपट की तारिका प्रणयिनी
अब खत्म होती जा रही
मधुमास की बेला

-राजीव कुमार झा