यादों का मौसम- शिवम मिश्रा

तुम्हारे यादों का मौसम हैं
दिल का पंछी पंख मारता रहता है
तड़पता है लेकिन,
चाह कर भी उड़ नहीं पाता
लगता है किसी ने पंखों को,
मजबूत रस्सी से बांध दिया है
जो आंखों से,
खुला आसमां तो देख सकता है
लेकिन उड़ना उसके नसीब में,
अब नहीं लिखा है
पिंजड़े में जकड़ा मजबूर,
यादों के भंवर में फंसा
दुआ करता है अपनी मौत की,
जिससे ये सब रुक जाएं
मौत आती भी है,
अक्सर सर्द रातों के घने अंधेरे में मगर
उसे मेरे नसीब में दुख और तड़प की,
यात्रा अभी कम लगती है
जिंदा रहने का वैसे तो कोई जायज़,
वज़ह नहीं हैं मेरे पास
मगर अक्सर तुम्हारे यादों के,
खुले आसमां में घूम आता हूँ
कुछ सुकून और राहत मिलती है,
मिलन के उस पल को याद कर के
तब क़ैद नहीं किया गया था,
मुझे किसी ने अपने पिंजरे में
आज़ाद था मैं तुमसे मिलने के लिए,
तय करता था रोज़ लंबा सफर
लेकिन अब विरह का आग़,
जिस्म को जला के राख कर देना चाहती हैं
एक आख़िरी इच्छा अब,
बस यही बाक़ी है सीने के अंदर,
जब विरह की अग्नि मुझे राख कर दे,
तो उसे विसर्जित कर देना
मगर याद रखना मेरे अस्थियों का विसर्जन
यमुना के सरिता में ही करना
मुझे विरह के आंसुओं कि वही गर्माहट चाहिए
जो कभी राधा का श्याम के लिए था

-शिवम मिश्रा
मुंबई, महाराष्ट्र