ये न समझना- मनोज शर्मा

जाड़े की कुनकुनी धूप सी
नहीं होती है जिंदगी
आधी रात को हड्डियां कंपकपाती
सिरहन सी होती है जिंदगी
लेकिन सबको अपना-अपना
लिहाफ़ बुनने का मौका
जरूर देती है जिंदगी

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सूखे पत्ते देखकर
ये न समझना
की में जी रहा हूँ पतझड़ में
तुम्हारे शहर के हर एक पेड़ पर
छोड़ आया हूँ थोड़ा-थोड़ा
हरापन

-मनोज शर्मा मनु
बैंगलुरु