वक़्त के सांचे में- जया पाटिल

वक़्त के सांचे में अपने आप को ढाले हुए
हँस रहे हैंं देखिये हम दर्द के पाले हुए

जिस जगह पर मैं रुकी हूँ साथ मेरे ग़म रुके
मैं चली तो साथ मेरे पांव के छाले हुए

घर के बंटवारे में केवल माँ अकेली रह गयी
अपनी-अपनी चाबियों के साथ में ताले हुए

क्या दिखेंगे इश्क़ की बुनियाद के पत्थर हैं हम
पर्दा अपने आप पर हैं ख़ुद ही हम डाले हुए

गर्दिशे हालात ने उनको पराया कर दिया
कल तलक थे बांह मेरी बांह में डाले हुए

है नये इस दौर की कैसी जया ये रोशनी
दिन के चेहरे रात के जैसे यहां काले हुए

-जया पाटिल