शेर जब भी मेरे- सूरज राय सूरज

शेर जब भी मेरे निकलते हैं ।
फूल हैरत से आँख मलते हैं ।।

अश्क़ बन कर कभी भी न गिरना
अश्क़ गिर कर कहाँ सम्हलते हैं ।।

आईने याद के हटा लीजै
दर्द कपड़े यहां बदलते हैं ।।

थाम के हाथ छांव तू चलना
धूप के पांव भी फिसलते हैं ।।

क्या करिश्मा जुनूँ शहीदों का
सर क़लम होके भी उछलते हैं ।।

आप इन्सां की बात करते हो
अक़्स को आईने भी छलते हैं ।।

सिर्फ़ आँखों को मूँद लेने से
रोज़ सपने कहाँ बहलते हैं ।।

सिर्फ़ जुगनू हूँ मैं तो क्यूँ मुझसे
चाँद “सूरज” चिराग़ जलते हैं ।।

-सूरज राय सूरज