संघर्ष- प्रतिभा राज

मैं जाना चाहती हूँ कहीं दूर
जहाँ ये शोर न हो
इतनी खामोशी भी न हो
की मन व्याकुल हो उठे
कि कोई साथ तो हो लेकिन मुझे सुने
जैसे नदियाँ पहाड़ों से बात करतीं हैं
चिड़ियाँ आकाशों से बात करती हैं
बैलों की गले की घंटीयों की धुन
खेतों में लहलहाते गेहूँ की बालियों की खनखनाहट
कहीं दूर तलक हल्की सी रोशनी
जो मद्धम-मद्धम रात के अँधरे को काटती हुई
और इन सब के बीच मैं…!

-प्रतिभा राज