समाधि- डॉ सुषमा गजापुरे

अकेली
मैं कहाँ रहती हूँ अकेली?
जब सोचती हूँ तुम्हें,
तुम्हारे स्पर्श का अहसास,
वो बोलती आँखों की चमक,
सरल दृष्टि के पीछे से झाँकती
निरागस प्रेम की याचना,
तुम्हारी नेह-ताप से उष्ण साँसें,
बातों से झरता अपनापन,
उन्मुक्त हास-परिहास,
कभी यूं ही गुनगुनाना,
अस्फुटित कोई गान,
बैठे रहना मौन,
फिर होना पास और पास
फिर लेना शब्दों को अधरों पर थाम,
बैठकर एकांत में ये सब सोचती हूँ
तब मैं कहाँ रहती हूँ अकेली?

वो स्पर्श को सन्नाटे में पिरोना,
अन्तर्मन के शिवालय पर
निरंतर स्नेह अभिषेक करना,
वो बहना भीतर एकदूजे के
दृश्य या अदृश्यता की धारा में,
तब मैं कहाँ रहती हूँ अकेली?

लगा बैठती हूँ समाधी
प्रेम की साधना में रत,
तब एकाकार हो जाती है
आत्माएँ हमारी स्नेह से भर,
समय और दूरियों को लांघना
तब कितना हो जाता है सरल,
और कितनी हो जाती विस्मयकारी
पूर्णता से संपूर्णता की यह यात्रा,
तब मैं कहाँ रहती हूँ अकेली?
कहो न

-डॉ सुषमा गजापुरे ‘सुदिव’