सरकार समझ बैठे- दीपक क्रांति

बुरी आदतों की हार को फूलों का हार समझ बैठे
अंग्रेजी रटनेवालों को हम समझदार समझ बैठे
पाश्चात्य संस्कृति के इस कदर पिछलग्गू हो गए,
दिखावे के बाज़ार को हम संस्कार समझ बैठे

जीवन है तो दुनिया है ये बात समझ जाना,
अभी सबसे बड़ी है शर्त रूह का ज़िंदा रह पाना,
हो उनकी बंदगी जो बचाते हैं ज़िन्दगी,
लोग तो खुद को ही खुदा या सरकार समझ बैठे

है आसां बहुत कि हम व्यापारी हो जाएँ,
है कठिन डगर कि सच्चे इश्क़ से यारी हो पाये.
प्रेम इस रूह से उस रूह की गहराई को समझे,
रूप-रुपया के लोभ को हम प्यार समझ बैठे

-दीपक क्रांति
रांची झारखण्ड