सामर्थ्य हो तुम- डॉ सुनील कुमार शर्मा

सृजन-सामर्थ्य हो तुम
स्वप्निल इच्छाओं के
पंख बन कल्पनाएँ मेरी
उड़ा ले चले तुम
लूंगा थाह समय
की आवाजाही की
तुम्हारी धड़कनों की गति से
फैल जाउँगा रोशनी की तरह
धरा तक आसमान से

शब्दों
बतलाना तुम सच सच
आँखें भर आई थी
हिमगिरी की और
रोया था जलधर
और संग रोए थे
कालिदास जब
धर संयम तुमने तब,
मेघदूत के पृष्ठों के हृदय में
भावों का समुद्र बहा दिया
देख सर्वदमन की
माता का रूदन,
कह दिया शकुन्तला का क्रन्दन

अब बिखर रहे हैं जब,
उलझ कर जरूरतों में
बंधन रिश्तों के
पकड़ा रहे हो अर्थ
बेछोर शिफर के
साध रहे शब्द तुम ही
मेरी साध

रचते आशा के बंधन,
करते तुम ही भाव प्रयोग
बतलाते तुम होता है
कैसा चिर वियोग
वैरागी का भी मौन तुम
निन्दक तक,
प्रशंसक तक
और प्रेयसी के प्राणों तक,
लालसा से भरे
पूर्णिमा के चंदा तक पहुचुँगा
तुम से होकर

जिह्वा पर उभरे
बन स्वाद तुम
हुए भावों के ताप तुम
मेरी खोज का
आलम्ब तुम,
सृजन का आधार तुम
क्षितिजों के कुहासे
को चीर कर
दिशा दिखलाई थी
और दिखला रहे अब भी तुम
शब्द सिर्फ शब्द
नहीं तुम

-डॉ सुनील कुमार शर्मा